Political Science
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Dalit Rajniti Ki Samasyayen
आज के प्रश्न –
दलित राजनीति की समस्याएँ –
दलित राजनीति से उम्मीद थी कि वह न केवल दलितों का संगठन करेगी और उन्हें अन्याय से संघर्ष करने के लिए प्रेरित करेगी, बल्कि देश के लिए एक नयी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था प्रस्तावित करेगी, जो स्वतन्त्रता, समानता और भाई-चारे पर आधारित हो। दलित राजनीति में आज ये स्वर क्यों नहीं सुनाई पड़ रहे हैं ? इस स्थिति का रहस्य क्या है कि जैसे-जैसे दलित आन्दोलन मजबूत हो रहा है, वैसे-वैसे दलित राजनीति आदर्शविहीन और व्यक्तिवादी होती जा रही है? दलित राजनीति से जुड़े तमाम प्रश्नों की विचारोत्तेजक पड़ताल।SKU: VPG8181434555 -
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Jaati Ka Jahar
आज के प्रश्न जाति का ज़हर –
सामाजिक विषमता दुनिया के सभी समाजों में रही है, लेकिन भारत इस मायने में एक अनोखा देश है कि यहाँ जाति प्रथा को शास्त्रीय, सामाजिक एवं राजनीतिक मान्यता दी गई। बेशक इस क्रूर तथा अमानवीय व्यवस्था के ख़िलाफ समय-समय पर विद्रोह भी हुए, किंतु जाति प्रथा का ज़हर कम नहीं हुआ। दिलचस्प यह है कि यह कोई स्थिर व्यवस्था नहीं रही है और जातियों के सोपान क्रम में नये-नये समूह प्रवेश पाते रहे हैं, फिर भी इससे स्वयं जाति प्रथा को कोई धक्का नहीं पहुँचा है। कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत की प्रगति में यह एक बहुत बड़ा रोड़ा है। जिस समाज में आंतरिक गतिशीलता न हो तथा मनुष्य की नियति उसके जन्म के समय ही तय हो जाती हो, वह न तो बाह्य चुनौतियों का मुकाबला कर सकता है और न आंतरिक बाधाओं का। आरक्षण की व्यवस्था ने जाति प्रथा के खूंखार क़िले में गहरी सेंध लगाई है, पर दिक्कत यह है कि वह जातिवाद के प्रसार में सहायक भी हो रहा है। ऐसी स्थिति में जाति को या उसके ज़हर को कैसे खत्म किया जा सकता है ? क्या आधुनिकता के विकास से जाति व्यवस्था अपने आप कमजोर हो जाएगी या इसके लिए कुछ विशेष प्रयास करने होंगे ? आखिर क्या वजह है कि जो हिन्दू एकता की बात कहते नहीं अघाते, वे हिन्दू समाज में आंतरिक सुधार के लिए सबसे कम प्रयत्नशील हैं ? क्या कट्टरपंथ और उदारवाद का द्वन्द्व आज अपने निर्णायक चरण में है या हमें कुछ और इंतजार करना पड़ेगा-जब तक भारत का पूरा आर्थिक विकास नहीं हो जाता ? जाति प्रथा की अमानवीयताओं और उससे संघर्ष को विस्तृत फलक पर देखनेवाली एक महत्वपूर्ण पुस्तक |
जाति का जहर –
जाति प्रथा को तभी से चुनौती मिलती आई, जब से वह अपने अमानवीय अस्तित्व में आई। फिर भी जाति का जहर है कि आज भी बना हुआ है। बेशक आधुनिकता की शक्तियों ने उसे कुछ कमजोर किया है और आरक्षण व्यवस्था ने उसे गंभीर चुनौती दी है, लेकिन जातिविहीन समाज का सपना अभी भी एक यूटोपिया ही है। उलटे कई ऐसी प्रक्रियाएँ चल रही हैं, जो जाति प्रथा को मजबूत करने वाली हैं। ऐसी स्थिति में जाति से संघर्ष की रणनीति क्या हो सकती है ? जाति प्रथा की जटिलताओं का विश्लेषण ही नहीं, बल्कि उससे संघर्ष की अंतर्दृष्टि भी इस पुस्तक की उल्लेखनीय विशेषता है।
जाति प्रथा का विनाश, इतिहास की चुनौती, गाँव से शहर तक, मेरी जाति, मुसलमानों में ऊँच-नीच, जाति क्यों ज़हर बन गयी, जातिविहीन समाज का सपना, आरक्षण तो सवर्णों का होना चाहिए, सामाजिक न्याय-मीडिया और गांधी, संस्कृतीकरण और पाश्चात्यकरण, बार-बार जन्म लेती है जाति, जाति कौन तोड़ेगा ।SKU: VPG8170555605 -
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Kashmir Ka Bhavishya
कश्मीर का भविष्य –
भारत में कश्मीर पर कोई भी राजनीतिक किताब लिखना या सम्पादित करना जोख़िम से भरा काम है। पंजाब समस्या पर, झारखंड की माँग पर और यहाँ तक कि उत्तर-पूर्व भारत में विद्रोह की स्थिति पर किताब तैयार की जा सकती है। कोई आपको राष्ट्रद्रोही नहीं कहेगा। लेकिन कश्मीर पर वस्तुपरक ढंग से कुछ भी लिखने से यह विशेषण बहुत आसानी से आमन्त्रित किया जा सकता है। यही कारण है कि भारत में कश्मीर पर अभी तक जो भी पुस्तकें लिखी या सम्पादित की गयी हैं, वे मुख्यतः ‘राष्ट्रवादी’ क़िस्म की हैं। उनमें कश्मीर के असन्तोष पर विचार ज़रूर किया गया है, किन्तु मूल प्रतिज्ञा यह है कि कश्मीर हमारा है और हमारा ही रहेगा- इसकी क़ीमत जो भी हो। ऐसी किताबें विरल हैं, जो कश्मीर की समस्या को कश्मीरियों की निगाह से भी देखती हों। ऐसी अच्छी किताब शायद कोई कश्मीरी ही लिख सकता है। लेकिन कश्मीरी को इस समय कलम नहीं, बन्दूक़ ज़्यादा आकर्षित कर रही है। अभी हाल तक कश्मीर का पक्ष देख पाना इसलिए भी कठिन था, क्योंकि कश्मीर की आज़ादी की माँग बहुत बुलन्द नहीं थी। अब यह आवाज़ कश्मीर की घाटी में ही नहीं, दूर-दूर तक सुनी जा सकती है। स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आ चुका है। अतः नये विचारों की ज़रूरत है। यह पुस्तक इसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है। कश्मीर भारतीय राजनीति की एक महत्त्वपूर्ण कसौटी है, अतः इसके आईने में हम भारत के राजनीतिक चरित्र की भी वस्तुपरक जाँच कर सकते हैं।SKU: VPG8170553359 -
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Naitikta Ke Naye Sawal
आज के प्रश्न : नैतिकता के नए सवाल –
पुरानी नैतिकता अब काफ़ी क्यों नहीं है? नयी नैतिकता के मुख्य आधार क्या है? नैतिकता का वैश्वीकरण की प्रक्रिया से क्या रिश्ता है? क्या नैतिक लोकतन्त्र स्थापित किए बग़ैर वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना किया जा सकता है? आर्थिक नैतिकता की कौन-सी माँगें है? और स्त्री अधिकारों का प्रश्न? क्या मानव सम्बन्धों में एक बारीक नैतिक व्यवस्था बनाये बग़ैर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में क्या वास्तविक रस पैदा हो सकता है? ये और इस तरह के अनेक प्रश्नों पर इस पुस्तक के लेखकों ने गम्भीरता से विचार किया है। इस दृष्टि से यह पुस्तक वर्तमान समय की पड़ताल भी है। और नैतिकता के स्रोतों को समझने की कोशिश भी इन विचारपूर्ण और विचारोत्तेजक लेखों को पढ़ते हुए हम इस विचार के क़रीब आते जाते हैं कि नैतिकता सिर्फ़ व्यक्तिगत आदर्शवाद नहीं है, बल्कि एक व्यवस्थागत प्रश्न भी है। यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि जब अनैतिकता का दबाव बढ़ रहा हो, तब नैतिक होने की प्रेरणा कहाँ से लायें?
अन्तिम पृष्ठ आवरण –
क्या नैतिकता, आदर्श, ईमानदारी आदि गुज़रे ज़माने की चीज़ हो गये हैं? या पुरानी संकीर्ण नैतिकता के स्थान पर एक व्यापक नैतिकता की माँग पैदा हो रही है? पुरानी नैतिकता अब काफ़ी क्यों नहीं है? नयी नैतिकता के प्रमुख आधार क्या हैं? क्या नैतिक लोकतन्त्र की स्थापना किये बग़ैर वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना किया जा सकता है? मानव सम्बन्धों में एक बारीक नैतिक व्यवस्था बनाये बग़ैर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में क्या वास्तविक रस पैदा किया जा सकता है? इस तरह के अनेक प्रश्नों पर इस पुस्तक के लेखकों ने गम्भीर विचार किया है। वर्तमान समय और समाज को समझने का एक विचारोत्तेजक दृष्टिकोण।SKU: VPG8181434524