charitra
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General Book, Uncategorized
Stanislavski : Charitra Ki Rachna-Prakriya
जैसे कोई कलाकार छेनी लेकर पत्थर से मूर्तियों की रचना करता है, उसके विभिन्न भागों में सन्तुलन, सुन्दर अनुपात और सही रेखाओं को खोजता है, रंगमंच के शारीरिक प्रशिक्षक को जीवन्त शरीर के साथ वैसे ही प्रतिफल की प्राप्ति की कोशिश करनी चाहिए और फिर इसके विभिन्न भागों के अनुपातों को समझना चाहिए। अभिनेता रचनात्मक प्रक्रिया में जितना अधिक अनुशासन और आत्म-संयम से काम लेता है, उसकी भूमिका का रूपाकार उतना ही स्पष्ट होता है और दर्शक भी उतना ही अधिक प्रभावित होते हैं। हर अभिनेता को अपनी वाणी की सामर्थ्य का विशेष रूप से भान होना चाहिए। अगर उसका अपनी वाणी पर समुचित अधिकार न हो तो भावों की सूक्ष्म भंगिमाओं का समुचित प्रयोग वह कैसे कर पाएगा!… रंगमंच पर वाचन की आधारभूत नियमावली को समझे बिना अपने मन को नये विचारों से भर लेने की कोई उपयोगिता नहीं है; विज्ञान और कला तभी सहायक होते हैं जब वे एक-दूसरे को सहारा दें और परिपूरक बनें।
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Fiction/Non Fiction Novels
कृष्णा सोबती के उपन्यासों के प्रमुख नारी चरित्र Krishna Sobati Ke Upnyason Ke Pramukh Naari Charitra)
Fiction/Non Fiction Novelsकृष्णा सोबती के उपन्यासों के प्रमुख नारी चरित्र Krishna Sobati Ke Upnyason Ke Pramukh Naari Charitra)
यह सब स्त्री के साथ हुआ तो अचानक नहीं हुआ और न शून्य में हुआ है। समाज
का पूरा ढाँचा बदला, धर्मों का प्रभाव, नैतिक मूल्यों का स्वरूप तथा विरासत या उत्तराधिकार के कायदे बदले और स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंध में भी गुणात्मक फर्क आया । कृषि संस्कृति के आगे जब औद्योगिक विकास हुआ तो समाज की पूरी संरचना में पूचाल जैसी स्थिति पैदा हुई। शुरू में स्त्रियों को उस भूचाल से अलग रखने का प्रयत्न हुआ पर उन्हें अलग रखना सम्भव नहीं हुआ। परिणाम यह हुआ कि प्रजातंत्र में स्त्री को भी नागरिक का दर्जा मिला और पुरुष की बराबरी में मतदान का अधिकार प्राप्त हुआ। इन सबके कारण स्त्री समुदाय को शिक्षा प्राप्त करने की, सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की, नौकरी और रोजगार करने की गुंजाइश हुई। धीरे-धीरे वह पुरुष से पूरी तरह अपनी समकक्षता का दावा करने में समर्थ हुई। इससे उसका निजी जीवन भी प्रभावित हुआ, समाज तो प्रभावित हुआ ही। कृष्णा सोबती न्यारी- उत्तर आधुनिकता के इस दौर में कई नये विमर्श प्रचलित हुए है। उनमें स्त्री- को अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह नहीं कि स्त्री को साहित्य में कोई नया प्रवेश मिल रहा हो; यह साहित्य में बहुत पहले से, शायद साहित्य की शुरुआत के समय से रही है। अब नया यह हुआ है कि स्त्री खूबसूरत गुड़िया जैसी चीज नहीं रह गयी है-साहित्य में कुछ-कुछ ऐसी ही उसकी स्थिति पहले थी। इससे अलग उसका व्यक्तित्व रूप कुटिलता को भूमिका में भी जब-तब दीखता रहा था। वह आकृष्ट करती थी, आह्लादित करती थी, पर वर्चस्व पुरुष का ही रहता था। उसके लिए बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ दी गयी और फिर भी उसकी अपनी अस्मिता के मानवीय पक्ष की प्रायः अनदेखी होती रही। अब उसकी अस्मिता को स्वाभाविक अभिव्यक्ति मिलने लगी है। वह है तो इसलिए नहीं कि उसका कोई पिता है, कोई पति है, और कोई पुत्र है। वह अपने तई है, और यदि नहीं है तो होना चाहती है। उसे किसी बैसाखी की जरूरत नहीं है। बड़ी बात यह है कि उसमें अन्य स्त्रियों के साथ अपनापे का संबंध भी मालूम पड़ने लगा है। इसलिए निजता के साथ-साथ सामुदायिकता को मिलाकर उसकी अस्मिता का निर्माण हुआ है।
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