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इस पृथ्वी के एक जीव के नाते मेरे पास ठोस की जकड़ है और वायवीय की माया । नींद है और जाग है। सोये हुए लोग जागते हैं। जागते हुए लोग सोने जाते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं—जो न इधर हैं, न उधर । वे प्रायः नींद से बाहर और स्वप्न के भीतर होते हैं। उनींदे…मैंने स्वयं को अकसर यहीं पाया है… क्या यह मैं हूँ? कविताओं वाली मैं? मैं नहीं जानती। इतना जानती हूँ, जब कविता लिखती हूँ, गहरे जल में होती हैं और तैरना नहीं आता। किस हाल में कौन किनारे पहुँचूँगी-बचूँगी या नहीं-सब अस्पष्ट रहता है। किसी अदृश्य के हाथों में। लेकिन गद्य लिखते हुए मैंने स्वयं को किनारे पर खड़े हुए। पाया है। मैं जो बच गयी हूँ, जो जल से बाहर आ गयी हूँ… गगन गिल की ये गद्य रचनाएँ एक ठोस वस्तुजगत संसार को, अपने भीतर की छायाओं में पकड़ना है। यथार्थ की चेतना और स्मृति का संसार-इन दो पाटों के बीच बहती हुई अनुभव-धारा जो कुछ किनारे पर छोड़ जाती है, गगन गिल उसे बड़े जतन से समेट कर अपनी रचनाओं में लाती हैं-मोती, पत्थर, जलजीव-जो भी उनके हाथ का स्पर्श पाता है, जग उठता है। यह एक कवि का स्वप्निल गद्य न होकर गद्य के भीतर से उसकी काव्यात्मक सम्भावनाओं को उजागर करना है… कविता की आँच में तप कर गगन गिल की ये गद्य रचनाएँ एक अजीब तरह की ऊष्मा और ऐन्द्रिक स्वप्नमयता प्राप्त करती हैं।
कैनवास पर प्रेम –
विमलेश त्रिपाठी ने कविता और कहानी के क्षेत्र में तो अपने रचनात्मक क़दम पहले से ही रख दिये थे और अन्य पुरस्कारों के साथ-साथ भारतीय ज्ञानपीठ का ‘नवलेखन पुरस्कार’ भी अपनी झोली में डाल लिया था। उनके कविता-संग्रह ‘हम बचे रहेंगे’, ‘एक देश और मरे हुए लोग’; कहानी-संग्रह ‘अधूरे अन्त की शुरुआत’ इस बात का सुबूत है कि विमलेश में साहित्यिक परिपक्वता कूट-कूट कर भरी है।
विमलेश एक मँजे हुए लेखक की तरह अपने समय को लिखता है। उसकी क़लम में समाज का दर्द है और वह परम्पराओं को तोड़ने का साहस भी रखता है। परम्पराओं को तोड़ने के लिए परम्पराओं का ज्ञान होना आवश्यक है। विमलेश के लेखन की यही विशेषता उसे अलग खड़ा करती है। उसके लेखन से स्पष्ट हो जाता है कि वह किसी आलोचक विशेष को प्रसन्न करने के लिए नहीं लिख रहा, बल्कि जो कुछ उसके दिल को छूता है, परेशान करता है उसी विषय पर उसकी क़लम चलती है।
हमें कॉलेज और विश्वविद्यालय में बार-बार सिखाया गया था कि लेखक को कहानी और पाठक के बीच में स्वयं नहीं आना चाहिए… मगर परम्पराएँ तो टूटने के लिए ही बनती हैं न।
विमलेश का ‘कैनवास पर प्रेम’ उपन्यास एक ऐसी कथा का वितान रचता है, जहाँ प्रेम और खो गये प्रेम के भीतर की एक विशेष मनःस्थिति निर्मित हुई है। अपने उत्कृष्ट कथा शिल्प के सहारे विमलेश ने धुन्ध में खो गये उसी प्रेम को कथा के नायक सत्यदेव की मार्फ़त रचा है। विमलेश के इस नये उपन्यास का हिन्दी जगत में खुल कर स्वागत होगा और यह हमें एक नयी दिशा में सोचने को मजबूर करेगा।-तेजेन्द्र शर्मा
इस पृथ्वी के एक जीव के नाते मेरे पास ठोस की जकड़ है और वायवीय की माया । नींद है और जाग है। सोये हुए लोग जागते हैं। जागते हुए लोग सोने जाते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं—जो न इधर हैं, न उधर । वे प्रायः नींद से बाहर और स्वप्न के भीतर होते हैं। उनींदे…मैंने स्वयं को अकसर यहीं पाया है… क्या यह मैं हूँ? कविताओं वाली मैं? मैं नहीं जानती। इतना जानती हूँ, जब कविता लिखती हूँ, गहरे जल में होती हैं और तैरना नहीं आता। किस हाल में कौन किनारे पहुँचूँगी-बचूँगी या नहीं-सब अस्पष्ट रहता है। किसी अदृश्य के हाथों में। लेकिन गद्य लिखते हुए मैंने स्वयं को किनारे पर खड़े हुए। पाया है। मैं जो बच गयी हूँ, जो जल से बाहर आ गयी हूँ… गगन गिल की ये गद्य रचनाएँ एक ठोस वस्तुजगत संसार को, अपने भीतर की छायाओं में पकड़ना है। यथार्थ की चेतना और स्मृति का संसार-इन दो पाटों के बीच बहती हुई अनुभव-धारा जो कुछ किनारे पर छोड़ जाती है, गगन गिल उसे बड़े जतन से समेट कर अपनी रचनाओं में लाती हैं-मोती, पत्थर, जलजीव-जो भी उनके हाथ का स्पर्श पाता है, जग उठता है। यह एक कवि का स्वप्निल गद्य न होकर गद्य के भीतर से उसकी काव्यात्मक सम्भावनाओं को उजागर करना है… कविता की आँच में तप कर गगन गिल की ये गद्य रचनाएँ एक अजीब तरह की ऊष्मा और ऐन्द्रिक स्वप्नमयता प्राप्त करती हैं।
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