Theistic belief in God as an all-powerful, omniscient, and benevolent creator has been a long-standing belief that has attracted both strong supporters and formidable critics. The problem of evil has been a significant obstacle to theistic belief. The retributive hypothesis is presented in this book as the most satisfactory or at least the least disappointing of all possible explanations to the problem of evil within the theistic context. One thing to note in this context is that belief in God, as an omniscient and omnipotent creator of the universe, has been presented here as a thesis for an enquirer’s point of view. This book focuses mainly on the critical examination of theistic belief. This critical examination will discuss the issues of survival, retributive justice and personal identity. With its distinctively critical and analytical approach, the book raises interesting questions and addresses them with fresh insight. This makes it a significant contribution to philosophy and the field of Philosophy of religion.
Evil and the Retributive Hypothesis
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Achchha To Tum Yahan Ho
0 out of 5(0)अच्छा तो तुम यहाँ हो –
राजेन्द्र क़रीने के कथाकार हैं। जन और जीवन से उन्हें गहरा लगाव है और वे कहानियों का ‘कंटेंट’ इर्द-गिर्द घट रही घटनाओं में तलाशते हैं। उनकी क़लम बदी की मुख़ालिफ़ और नेकी की हिमायती है। मानवीय रिश्तों और मनुष्यत्व की गरिमा में उनका गहरा यक़ीन है। लोक के वृत्त में रहते हुए चीज़ों का सन्धान करने की कला उनके पास है और उनका यह हुनर उनकी कहानियों में बख़ूबी झलकता है। चाहे ‘अच्छा तो तुम यहाँ हो’ के स्त्री-पुरुष हों या ‘जयहिन्द’ के कलेक्टर या कमांडर अथवा ‘पाइपर माउस’ का नायक चूहा, वे हमें बेहद अपने लगते हैं, हमारे अपने बीच के परिचित और जाने-पहचाने।
राजेन्द्र घटनाओं और संवादों की लटों से कहानी को बहुत जतन से गूँथते हैं। उनकी भाषा उनका साथ देती है। वे कहीं लड़खड़ाते नहीं और न ही हड़बड़ी में भागते दीखते हैं। सधी हुई चाल, न प्रकम्प, न उतावलापन। वे तनाव और लगाव दोनों को बहुत सलीके से व्यक्त करते हैं। वे अपनी ओर से नहीं बोलते, बल्कि वाक़ये और किरदार बोलते हैं। उनके पात्र पाठक को अपने साथ-साथ देर और दूर तलक ले चलने की क़ुव्वत रखते हैं। यही नहीं, इस यात्रा के बाद पाठक के लिए उन्हें भूल पाना मुमकिन नहीं हो पाता।
राजेन्द्र शब्दों को विचारों की मद्धिम आँच में पकाते हैं। वे रिश्तों की सान्द्रता को चीन्हते हैं और क़लम से रिश्तों की देह में धँसी किरचों को बीनते हैं। उनकी कथायात्रा हताशा, नैराश्य, अवसाद अथवा पलायन के साथ समाप्त नहीं होती, वह साहसपूर्वक आगे की यात्रा की भूमिका रचती है। राजेन्द्र यथार्थ से मुठभेड़ के साहसी और चेतस कथाकार हैं और समाज और व्यवस्था के खोट और खुरंट को उजागर करने से नहीं चूकते। वे चुहल भी करते हैं और तंज़ भी कसते हैं। इन लम्बी कहानियों में वे कहीं भी शिथिलता या स्फीति के शिकार नहीं होते। आज के समय की ये कहानियाँ समकालीन कथा जगत को समृद्ध करती हैं।——डॉ. सुधीर सक्सेनाSKU: VPG9326355698₹165.00₹220.00 -
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17 Ranade Road
0 out of 5(0)17 रानडे रोड –
’17 रानडे रोड’ कथाकार सम्पादक रवीन्द्र कालिया का ‘ख़ुदा सही सलामत है’ और ‘एबीसीडी’ के बाद तीसरा उपन्यास है। यह उपन्यास पाठकों को बम्बई (अब मुम्बई) के ग्लैमर वर्ल्ड के उस नये इलाक़े में ले जाता है, जिसे अब तक ऊपर-ऊपर से छुआ तो बहुतों ने, लेकिन उसके सातवें ताले की चाबी जैसे रवीन्द्र कालिया के पास ही थी। पढ़ते हुए इसमें कई जाने-सुने चेहरे मिलेंगे— जिन्हें पाठकों ने सेवंटी एमएम स्क्रीन पर देखा और पेज थ्री के रंगीन पन्नों पर पढ़ा होगा। यहाँ लेखक उन चेहरों पर अपना कैमरा ज़ूम-इन करता है जहाँ चिकने फेशियल की परतें उतरती हैं और (बकौल लेखक ही) एक ‘दाग़-दाग़ उजाला’ दिखने लगता है।
‘ग़ालिब छुटी शराब’ की रवानगी यहाँ अपने उरूज़ पर है। भाषा में विट का बेहतरीन प्रयोग रवीन्द्र कालिया की विशिष्टता है। कई बार एक अदद जुमले के सहारे वे ऐसी बात कह जाते हैं जिन्हें गम्भीर क़लम तीन-चार पन्नों में भी नहीं आँक पाती। लेकिन इस बिना पर रवीन्द्र कालिया को समझना उसी प्रकार कठिन है जैसे ‘ग़ालिब छुटी शराब’ के मूड को चीज़ों के सरलीकरण के अभ्यस्त लोग नहीं समझ पाते। ‘मेरे तईं ग़ालिब…’ रवीन्द्र कालिया की अब तक की सबसे ट्रैजिक रचना थी। दरअसल रवीन्द्र कालिया हमेशा एक उदास टेक्स्चर को एक आह्लादपरक ज़ेस्चर की मार्फ़त उद्घाटित करते हैं।
उपन्यास के नायक सम्पूरन उर्फ़ एस.के. ओबेरॉय उर्फ ओबी ने जिस जीवन शैली को अपने लिए जिस डिक्शन को और यहाँ तक कि अपनी रहनवारी के लिए जिस भुतहे मकान को चुना है, वह आज की धुर पूँजीवादी व उपभोक्तावादी दुनिया में एक एंटीडोट का काम करता है। ओबी की दुनिया अपने इर्द-गिर्द की इस चमकीली दुनिया के बरअक्स इतनी ज़्यादा चमकीली और भड़काऊ है कि अपने अतिरेक में यह एक प्रतिसंसार उपस्थित कर देती है।
सम्पूरन इसलिए भी एक अद्वितीय पात्र बन पड़ा है कि जब दुनिया धुर पूँजीवादी हो चली है, वह पूँजी की न्यूनतम महिमा को भी ध्वस्त कर देता है। वह पैसे का दुश्मन है—क़र्ज़, सूद, उधार, अमीरी, ग़रीबी, दान, दक्षिणा आदि जो धन केन्द्रित तमाम जागतिक क्रियाशीलताएँ हैं, वह ओबी के जीवन से पूरी तरह अनुपस्थित हैं। वह हर तरह के दुनियावी बैलेंस शीट, बही-खाते, गिनती-हिसाब से परे एक विशुद्ध फ़क्कड़ और फ़क़ीर है। एक तरफ़ यदि यह सम्भव है कि वह रात में फ़िल्म इंडस्ट्री के नामी-गिरामी हस्तियों को महँगी शराब पिला रहा है, तो दूसरी तरफ़ यह भी असम्भव नहीं कि अगले दिन उसके पास टैक्सी का किराया भी न हो। वह कुलियों की तरह धनार्जन करता है ताकि राजकुमारों की तरह ख़र्च कर सके।
सम्पूरन एक कभी न थकने वाला जुझारू चरित्र भी है। वह कभी हार नहीं मानता, फ़ीनिक्स की तरह अपनी ही राख से फिर-फिर जी उठता है। बम्बई में जब कभी उसकी जेब पूरी तरह ख़ाली हो जाती है और उम्मीद की कोई किरण नहीं दीख पड़ती, वह अपना पोर्टफ़ोलियो उठाकर लोगों को पत्रिकाओं का सदस्य बनाना शुरू कर देता है। उपन्यास के अन्त-अन्त तक, जब वह सफलता का अर्श चूमने ही को होता है, एक करारे धक्के से फिर फ़र्श पर औंधे मुँह गिर पड़ता है लेकिन जब वह पुनः पोर्टफ़ोलियो उठाकर निकल पड़ने के लिए कमर कस लेता है, सुप्रिया की तरह ही पाठक उसे कौतुक, प्रशंसा और प्यार भरी नज़रों से देखने को बाध्य हो जाते हैं। एक अद्वितीय उपन्यास। —कुणाल सिंहSKU: VPG9326351904₹225.00₹300.00 -
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Ajneya Rachanawali (Volume-4)
0 out of 5(0)अज्ञेय रचनावली-4
अज्ञेय एक ऐसे विलक्षण और विदग्ध रचनाकार हैं, जिन्होंने भारतीय भाषा और साहित्य को भारतीय आधुनिकता और प्रयोगधर्मिता से सम्पन्न किया है: तथा बीसवीं सदी की मूलभूत अवधारणा ‘स्वतन्त्रता’ को अपने सृजन और चिन्तन में केन्द्रीय स्थान दिया है। उनकी यह भारतीय आधुनिकता उन्हें न सिर्फ़ हिन्दी, बल्कि समूचे भारतीय साहित्य का एक ‘क्लासिक’ बनाती है। विद्रोही और प्रश्नाकुल रचनाकार अज्ञेय ने कविता, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, नाटक, आलोचना, डायरी, यात्रा वृत्तान्त, संस्मरण, सम्पादन, अनुवाद, व्यस्थापन, पत्रकारिता आदि विधाओं में लेखन किया है। उनके क्रान्तिकारी चिन्तन ने प्रयोगवाद, नयी कविता और समकालीन सृजन में निरन्तर नये प्रयोगों से नये सृजन के प्रतिमान निर्मित किये हैं। जड़ीभूत एवं रूढ़ जीवन-मूल्यों से खुला विद्रोह करते हुए इस साधक ने जिन नयी राहों का अन्वेषण किया, वे असहमति और विरोध का मुद्दा भी बनीं, लेकिन आज स्थिति यह है कि अज्ञेय को ठीक से समझे बिना नयी पीढ़ी के रचनाकर्म के संकट का आकलन करना ही मुश्किल है।
‘अज्ञेय रचनावली’ में अज्ञेय का तमाम क्षेत्रों में किया गया विपुल लेखन पहली बार एक जगह समग्र रूप में संकलित है। अज्ञेय जन्म-शताब्दी के इस ऐतिहासिक अवसर पर हिन्दी के मर्मज्ञ और प्रसिद्ध आलोचक प्रो. कृष्णदत्त पालीवाल के सम्पादन में यह कार्य विधिवत सम्पन्न हुआ। आशा है, हिन्दी साहित्य के शोधार्थियों एवं अध्येताओं के लिए अज्ञेय की सम्पूर्ण रचना सामग्री एक ही जगह एक साथ उपलब्ध हो सकेगी।SKU: VPG8126320950₹750.00₹1,000.00
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