ìThe Central Philosophy of Buddhism
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Ae Mere Rehnuma
0 out of 5(0)ऐ मेरे रहनुमा –
तसनीम ख़ान की अनुशंसित कृति ‘ऐ मेरे रहनुमा’ प्रकाशित करते हुए सन्तोष का अनुभव हो रहा है। भारत ही नहीं विश्व की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करनेवाले स्त्री-स्वर का यथार्थ इस उपन्यास की केन्द्रीय भावभूमि है। विशेषकर अल्पसंख्यक समाजों में मुस्लिम स्त्री जीवन की आज़ादी के गम्भीर सवालों को उजागर करता यह उपन्यास सदियों से चलती आ रही पितृसत्तात्मक संरचनाओं का तटस्थ मूल्यांकन करता है।
इस कथा में आधुनिक स्त्री के जीवन के अँधेरों को भी बख़ूबी चित्रित किया गया है। इन अँधेरों से निकलने की छटपटाहट और प्रतिरोध की अभिव्यक्ति उपन्यास को महत्त्वपूर्ण बनाती हैं।
इधर जबकि उपन्यास का कथ्य तफ़सीलों और आँकड़ों से कुछ बोझिल होकर आलोचना के दायरे में है तब तसनीम ख़ान का यह उपन्यास अपनी भाषा की ताज़गी और सहज रवानी के कारण पाठ के सुख से आनन्दित करता है।
लेखिका ने छोटे-छोटे वाक्य और संवादों की स्फूर्ति से उपन्यास को सायास निर्मिति के दबाव से मुक्त कर स्त्री अस्मिता के प्रश्न को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। उम्मीद है पाठक को यह उपन्यास अपने समाज का ही आत्मीय परिसर लगेगा।SKU: VPG9326354844₹187.00₹250.00 -
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17 Ranade Road
0 out of 5(0)17 रानडे रोड –
’17 रानडे रोड’ कथाकार सम्पादक रवीन्द्र कालिया का ‘ख़ुदा सही सलामत है’ और ‘एबीसीडी’ के बाद तीसरा उपन्यास है। यह उपन्यास पाठकों को बम्बई (अब मुम्बई) के ग्लैमर वर्ल्ड के उस नये इलाक़े में ले जाता है, जिसे अब तक ऊपर-ऊपर से छुआ तो बहुतों ने, लेकिन उसके सातवें ताले की चाबी जैसे रवीन्द्र कालिया के पास ही थी। पढ़ते हुए इसमें कई जाने-सुने चेहरे मिलेंगे— जिन्हें पाठकों ने सेवंटी एमएम स्क्रीन पर देखा और पेज थ्री के रंगीन पन्नों पर पढ़ा होगा। यहाँ लेखक उन चेहरों पर अपना कैमरा ज़ूम-इन करता है जहाँ चिकने फेशियल की परतें उतरती हैं और (बकौल लेखक ही) एक ‘दाग़-दाग़ उजाला’ दिखने लगता है।
‘ग़ालिब छुटी शराब’ की रवानगी यहाँ अपने उरूज़ पर है। भाषा में विट का बेहतरीन प्रयोग रवीन्द्र कालिया की विशिष्टता है। कई बार एक अदद जुमले के सहारे वे ऐसी बात कह जाते हैं जिन्हें गम्भीर क़लम तीन-चार पन्नों में भी नहीं आँक पाती। लेकिन इस बिना पर रवीन्द्र कालिया को समझना उसी प्रकार कठिन है जैसे ‘ग़ालिब छुटी शराब’ के मूड को चीज़ों के सरलीकरण के अभ्यस्त लोग नहीं समझ पाते। ‘मेरे तईं ग़ालिब…’ रवीन्द्र कालिया की अब तक की सबसे ट्रैजिक रचना थी। दरअसल रवीन्द्र कालिया हमेशा एक उदास टेक्स्चर को एक आह्लादपरक ज़ेस्चर की मार्फ़त उद्घाटित करते हैं।
उपन्यास के नायक सम्पूरन उर्फ़ एस.के. ओबेरॉय उर्फ ओबी ने जिस जीवन शैली को अपने लिए जिस डिक्शन को और यहाँ तक कि अपनी रहनवारी के लिए जिस भुतहे मकान को चुना है, वह आज की धुर पूँजीवादी व उपभोक्तावादी दुनिया में एक एंटीडोट का काम करता है। ओबी की दुनिया अपने इर्द-गिर्द की इस चमकीली दुनिया के बरअक्स इतनी ज़्यादा चमकीली और भड़काऊ है कि अपने अतिरेक में यह एक प्रतिसंसार उपस्थित कर देती है।
सम्पूरन इसलिए भी एक अद्वितीय पात्र बन पड़ा है कि जब दुनिया धुर पूँजीवादी हो चली है, वह पूँजी की न्यूनतम महिमा को भी ध्वस्त कर देता है। वह पैसे का दुश्मन है—क़र्ज़, सूद, उधार, अमीरी, ग़रीबी, दान, दक्षिणा आदि जो धन केन्द्रित तमाम जागतिक क्रियाशीलताएँ हैं, वह ओबी के जीवन से पूरी तरह अनुपस्थित हैं। वह हर तरह के दुनियावी बैलेंस शीट, बही-खाते, गिनती-हिसाब से परे एक विशुद्ध फ़क्कड़ और फ़क़ीर है। एक तरफ़ यदि यह सम्भव है कि वह रात में फ़िल्म इंडस्ट्री के नामी-गिरामी हस्तियों को महँगी शराब पिला रहा है, तो दूसरी तरफ़ यह भी असम्भव नहीं कि अगले दिन उसके पास टैक्सी का किराया भी न हो। वह कुलियों की तरह धनार्जन करता है ताकि राजकुमारों की तरह ख़र्च कर सके।
सम्पूरन एक कभी न थकने वाला जुझारू चरित्र भी है। वह कभी हार नहीं मानता, फ़ीनिक्स की तरह अपनी ही राख से फिर-फिर जी उठता है। बम्बई में जब कभी उसकी जेब पूरी तरह ख़ाली हो जाती है और उम्मीद की कोई किरण नहीं दीख पड़ती, वह अपना पोर्टफ़ोलियो उठाकर लोगों को पत्रिकाओं का सदस्य बनाना शुरू कर देता है। उपन्यास के अन्त-अन्त तक, जब वह सफलता का अर्श चूमने ही को होता है, एक करारे धक्के से फिर फ़र्श पर औंधे मुँह गिर पड़ता है लेकिन जब वह पुनः पोर्टफ़ोलियो उठाकर निकल पड़ने के लिए कमर कस लेता है, सुप्रिया की तरह ही पाठक उसे कौतुक, प्रशंसा और प्यार भरी नज़रों से देखने को बाध्य हो जाते हैं। एक अद्वितीय उपन्यास। —कुणाल सिंहSKU: VPG9326351904₹225.00₹300.00 -
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Aadhunik Hindi Gadya Sahitya Ka Vikas Aur Vishleshan
0 out of 5(0)आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य का विकास और विश्लेषण –
प्रख्यात आलोचक विजय मोहन सिंह की पुस्तक ‘आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य का विकास और विश्लेषण’ में आधुनिकता को नये सिरे से परिभाषित और विश्लेषित करने की पहल है। काल विभाजन की पद्धति भी बदली, सटीक और बहुत वैज्ञानिक दिखलाई देगी।
साहित्य के विकासात्मक विश्लेषण की भी लेखक की दृष्टि और पद्धति भिन्न है। इसीलिए हम इस पुस्तक को आलोचना की रचनात्मक प्रस्तुति कह सकते हैं।
पुस्तक में आलोचना के विकास क्रम को उसके ऊपर जाते ग्राफ़ से ही नहीं आँका गया है। युगपरिवर्तन के साथ विकास का ग्राफ़ कभी नीचे भी जाता है। लेखक का कहना है कि इसे भी तो विकास ही कहा जायेगा।
लेखक ने आलोचना के पुराने स्थापित मानदण्डों को स्वीकार न करते हुए बहुत-सी स्थापित पुस्तकों को विस्थापित किया है। वहीं बहुत-सी विस्थापित पुस्तकों का पुनर्मूल्यांकन कर उन्हें उनका उचित स्थान दिलाया है।
पुस्तक में ऐतिहासिक उपन्यासों और महिला लेखिकाओं के अलग-अलग अध्याय हैं। क्योंकि जहाँ ऐतिहासिक उपन्यास प्रायः इतिहास की समकालीनता सिद्ध करते हैं, वहीं महिला लेखिकाओं का जीवन की समस्याओं और सवालों को देखने तथा उनसे जूझने का नज़रिया पुरुष लेखकों से भिन्न दिखलाई पड़ता है। समय बदल रहा है। बदल गया है। आज की महिला पहले की महिलाओं की तरह पुरुष की दासी नहीं है। वह जीवन में कन्धे से कन्धा मिलाकर चलनेवाली आधुनिक महिला है। वह पीड़ित और प्रताड़ित है तो जुझारू, लड़ाकू और प्रतिरोधक जीवन शक्ति से संचारित भी है।SKU: VPG9326352475₹562.00₹750.00
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