Weeraperuma is very familiar with J. Krishnamurti’s writings as well as the corpus literature in various languages on Krishnamurti. He worked as a thinker, lecturer, and writer at the British National Bibliography (British Library), as well as other London Libraries, and has published many works on Library Science.
Reprint of the classic study on Krishnamurti. It includes long descriptions of author’s many interviews and meetings with religious leaders. It is very easy to read.
J. Krishnamurti
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Aaswad Ke Vividh Praroop
0 out of 5(0)आस्वाद के विविध प्रारूप –
कविता के आस्वाद के अपने अनुभवों को दर्ज करते हुए प्रभात त्रिपाठी ने आलोचना की एक नयी और आत्मीय भाषा विकसित की है। आलोच्य कृति के अन्तरंग के साथ आनुभविक सम्बन्ध रचते हुए उन्होंने कविता के मर्म को लिखने का जो नया मुहावरा खोजा है, उसमें खोजने की विकलता की अनुगूँज है। हम अनुभव करते हैं कि वह कुछ चालू अवधारणाओं और नुस्खों पर टिकी अधिकांश समीक्षा की तुलना में हमारे मन पर गहरा असर डालती है। वास्तव में उनकी समीक्षा कवियों के रचनाशील मन की अनेक परतों को उघारने में तथा रचना की जटिलता को बोधगम्य बनाने में मनोयोग से जुटी सृजनात्मकता का ही एक अन्य रूप है। उसे साम्प्रतिक आलोचना की तरह देखना और पढ़ना शायद नाकाफ़ी है।
प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, नेमिचन्द्र जैन और भवानीप्रसाद मिश्र की अनेक कविताओं की व्याख्या करते हुए उनके काव्य संसार की विशेषताओं को दर्ज भर नहीं किया है, बल्कि पूरे काव्यानुराग के साथ उनके अनुभव-संसार से अपने मन को जोड़ने की कोशिश की है। यही नहीं, अज्ञेय और शमशेर की कुछ विशिष्ट रचनाओं की सुविस्तृत व्याख्या करते हुए उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि हर महत्त्वपूर्ण कविता अपनी नानार्थता के आलोक के साथ ही पाठक के मर्म तक पहुँचती है।
कविता में सक्रिय वैचारकिता की पहचान से दूर न रहते हुए भी उन्होंने यह कोशिश की है कि विचार को काव्य-विन्यास और कविता के शब्दों में ही कविता के विचार की तरह पढ़ने की एक सार्थक शुरुआत हो। हर कवि की रचना की व्याख्या के दौरान लेखक ने उसके रचनागत वैशिष्ट्य को इस तरह से रेखांकित किया है कि उन्हें महज किन्हीं सरलीकृत सामान्यीकरणों के आधार पर न पढ़ा जा सके। एक पाठक की तरह पाठ के अनुभवों को दर्ज करती यह पुस्तक सरलीकरणों एवं सामान्यीकरणों के विरुद्ध पाठक के हस्तक्षेप का एक विरल उदाहरण है।SKU: VPG9326351188₹127.00₹170.00 -
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Paw Patrol – My First Early Learning 10 Charts For Children: Learn With Paw Pups (Alphabet, Animals, Birds, Colors, Fruits, Numbers, Opposites, Shapes, Transport, Vegetables) – By Miss & Chief
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0 out of 5(0)SKU: PRK9389717747₹449.00₹599.00 -
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Aadhunik Hindi Gadya Sahitya Ka Vikas Aur Vishleshan
0 out of 5(0)आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य का विकास और विश्लेषण –
प्रख्यात आलोचक विजय मोहन सिंह की पुस्तक ‘आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य का विकास और विश्लेषण’ में आधुनिकता को नये सिरे से परिभाषित और विश्लेषित करने की पहल है। काल विभाजन की पद्धति भी बदली, सटीक और बहुत वैज्ञानिक दिखलाई देगी।
साहित्य के विकासात्मक विश्लेषण की भी लेखक की दृष्टि और पद्धति भिन्न है। इसीलिए हम इस पुस्तक को आलोचना की रचनात्मक प्रस्तुति कह सकते हैं।
पुस्तक में आलोचना के विकास क्रम को उसके ऊपर जाते ग्राफ़ से ही नहीं आँका गया है। युगपरिवर्तन के साथ विकास का ग्राफ़ कभी नीचे भी जाता है। लेखक का कहना है कि इसे भी तो विकास ही कहा जायेगा।
लेखक ने आलोचना के पुराने स्थापित मानदण्डों को स्वीकार न करते हुए बहुत-सी स्थापित पुस्तकों को विस्थापित किया है। वहीं बहुत-सी विस्थापित पुस्तकों का पुनर्मूल्यांकन कर उन्हें उनका उचित स्थान दिलाया है।
पुस्तक में ऐतिहासिक उपन्यासों और महिला लेखिकाओं के अलग-अलग अध्याय हैं। क्योंकि जहाँ ऐतिहासिक उपन्यास प्रायः इतिहास की समकालीनता सिद्ध करते हैं, वहीं महिला लेखिकाओं का जीवन की समस्याओं और सवालों को देखने तथा उनसे जूझने का नज़रिया पुरुष लेखकों से भिन्न दिखलाई पड़ता है। समय बदल रहा है। बदल गया है। आज की महिला पहले की महिलाओं की तरह पुरुष की दासी नहीं है। वह जीवन में कन्धे से कन्धा मिलाकर चलनेवाली आधुनिक महिला है। वह पीड़ित और प्रताड़ित है तो जुझारू, लड़ाकू और प्रतिरोधक जीवन शक्ति से संचारित भी है।SKU: VPG9326352475₹562.00₹750.00 -
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Aage Jo Pichhe Tha
0 out of 5(0)आगे जो पीछे था –
‘स्व के उजागर होने में ही देखना छुपा है।’ -हकु शाह
तमाम जीवों में से शायद मनुष्य में ही यह क्षमता है कि वह अपने से परे हो कर कभी-कभार इस सचराचर धरा और उसके बीच ख़ुद को देख-परख सके। यह देखना-परखना हर कला रूप अपनी तरह से, अपने व्याकरण के तहत करता है। देख्या परखिया सिख्या।
संस्कृति, संस्कार, इतिहास और स्मृति की एक भाँय-भाँय करते कई कमरों वाली हवेली से बाहर बदलते जीवन की खुली सड़क तक की यह यात्रा अपने-अपने औजारों की घिसी हुई थैली उठाये हुए तमाम संगीतकार, नर्तक, चित्रकार, स्थपित, लेखक, कवि सभी करते रहते हैं। कभी झिझक और अचरज से, कभी भय-विस्मय के साथ सहृदय रसिकों की छोड़ दें तो हमारे समय में वह तटस्थ आँख अधिकतर रसिक जनों के मन में बन्द हो कर रह गयी है जो इन कलाकारों की रचनाओं से अचानक कभी पंक्ति से उठा कर स्वर या शब्द या रंग अथवा भंगिमा को कौतुकीभाव से बच्चे की तरह निर्दोष मन से देखे और आनन्दित हो ले।मनीष का यह उपन्यास उसी निर्दोष पारदर्शी दृष्टि का सन्धान कर रहा है जहाँ घर बदर नायक ‘प्रारब्ध’ किसी अज्ञात पुश्तैनी स्मृतियों की हवेली से बरसों बाद निकलकर अपने चारों ओर के बदलाव भरे विश्व से एक कुतूहल भाव से, निर्दोष खुलेपन से सहमता-सा टकरा रहा है। जीवन का प्रमाण तो जीवन ही है, इसलिए नाम, रूप, गन्ध और तमाम ऐन्द्रिक संस्पर्श यहाँ हैं, पर चक्राकार गति से कभी आगे के पीछे तो कभी पीछे के आगे होते हुए। इसे जो इसी कौतुकी भाव से पढ़ेगा सोई परम पद पावेगा। किसी तर्रार-सी, ‘कोटेबल्कोट्स’ से भरी भराई आदि मध्य अन्त वाली नटवर नागर ख़बरिया कथा का सीधे आगे-आगे को भागता तारतम्य नायक प्रारब्ध या उसकी महिला संगिनी रात्रि के नाम, जीवन या गतिविधि में खोजनेवाले सावधान!
यहाँ आकृतियाँ हैं, परछाइयाँ हैं, धूल-भरी सड़कें और परछाइयों के बीच पड़े फूल और उनके रंग हैं। यह देखना एक चितेरे का शब्दों को पदार्थों को कभी उनके शब्दनाम से जोड़ कर, कभी उससे हटा कर दूसरे शब्द के बगल में रख कर देखना है, इस प्रक्रिया में सब कुछ बदलता है, रंग, शब्द, आकार, रेखाएँ और परम्परा की स्मृतियाँ समय यहाँ घड़ी के काँटों या कलेंडरी तारीख़ों से नहीं बनता। यह कायान्तरण की ज़मीन है जहाँ हर पदार्थ किसी तरह से हर दूसरे पदार्थ से जुड़ा है और अचानक दोनों से किसी तीसरे पदार्थ को उभरते हुए हम देखते हैं।
यहाँ असल सवाल अमीरी बनाम ग़रीबी, भोग बनाम वैराग्य या संकलन बनाम अपरिग्रह का नहीं, इन सबके मथे जाने से निकलते एक अमूर्त सत्य को पुराने सधुक्कड़ी फ़क़ीरों योगियों की तरह किसी अतिपरिचित दृश्य या शब्द या उपादान के माध्यम से हठात् देख सकने का है। जब भूमि नयी-नयी थी, संस्कृति शब्दों की वाचिकता में महफ़ूज़ थी और छापे की मशीनों वाले परदेसी जहाज़ पहली बार तट पर लग रहे थे। हमारे स्वाधीन पुरखों ने परम्परा की जड़ पर मँडराता ख़तरा देखा और शब्दों, बिम्बों, ध्वनियों को किसी क़दर नष्ट होने से बचाया था।
यह उपन्यास अतिपरिष्कार, अतिवाचालता और अतिअन्तरंगता से टनाटन लेखन विश्व से उलट कर एक खोये हुए सहज, सुगम और सघन मार्ग और शाब्दिक जड़ों की ईमानदार टोह यात्रा है जिसका न कोई शुरू है न ही अन्त। निरन्तरता ही इसका प्रारब्ध है और रात्रि इसके रंगों आकारों का गुप्त तलघर। -मृणाल पाण्डेSKU: VPG9326354905₹150.00₹200.00
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