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Kandhe Par Baitha Tha Shap


कन्धे पर बैठा था शाप –
मीरा कांत की नाट्य त्रयी ‘कन्धे पर बैठा था शाप’ उन छूटे हुए, अव्यक्त पात्रों एवं स्थितियों की अभिव्यक्ति है जो या तो साहित्यिक मुख्यधारा का अंग न बन सकीं या फिर उसकी सरहद पर ही रहीं।
इस नाट्य त्रयी का पहला नाटक है ‘कन्धे पर बैठा था शाप’ जो कालिदास के अन्तिम दिनों, अन्तिम उच्चरित शब्दों, अन्तिम पद्य-रचना, प्रायः विस्मृत मित्र कवि कुमारदास और उस मित्र के प्रेम-प्रसंग के माध्यम से स्त्री-विमर्श का एक नया वातायन खोलता है। स्त्री-विमर्श की एक अन्य परत है विद्योत्तमा, जो एक बार दण्डित की गयी विदुषी होने के कारण और दूसरी बार तिरस्कृत हुई सम्मान के नाम पर।
दूसरा नाटक ‘मेघ-प्रश्न’ कालिदास विरचित ‘मेघदूतम्’ के कथा-तत्त्व के अन्तिम सिरे को कल्पना की पोरों से उठाकर एक भिन्न व सर्वथा नयी वीथि की ओर बढ़ाने का सुन्दर प्रयास है। यह नाटक सन्देश काव्य के सर्वाधिक सशक्त कारक मेघ की निजी व्यथा का यक्ष प्रश्न सामने रखता है।
तीसरा नाटक ‘काली बर्फ़’ विस्थापन और डायस्पोरा के दर्द से बुने कश्मीर के समसामयिक यथार्थ को स्वर देता है। यह उस त्रासद कथा की एक बूँद मात्र है जो आज व्यथा बनकर बह रही है और उसी व्यथा-सरोवर में कहीं-कहीं खिल रहे हैं स्मृति से लेकर आनेवाले कल तक फैले सपने—कमल-दल सपनों के।

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कन्धे पर बैठा था शाप –
मीरा कांत की नाट्य त्रयी ‘कन्धे पर बैठा था शाप’ उन छूटे हुए, अव्यक्त पात्रों एवं स्थितियों की अभिव्यक्ति है जो या तो साहित्यिक मुख्यधारा का अंग न बन सकीं या फिर उसकी सरहद पर ही रहीं।
इस नाट्य त्रयी का पहला नाटक है ‘कन्धे पर बैठा था शाप’ जो कालिदास के अन्तिम दिनों, अन्तिम उच्चरित शब्दों, अन्तिम पद्य-रचना, प्रायः विस्मृत मित्र कवि कुमारदास और उस मित्र के प्रेम-प्रसंग के माध्यम से स्त्री-विमर्श का एक नया वातायन खोलता है। स्त्री-विमर्श की एक अन्य परत है विद्योत्तमा, जो एक बार दण्डित की गयी विदुषी होने के कारण और दूसरी बार तिरस्कृत हुई सम्मान के नाम पर।
दूसरा नाटक ‘मेघ-प्रश्न’ कालिदास विरचित ‘मेघदूतम्’ के कथा-तत्त्व के अन्तिम सिरे को कल्पना की पोरों से उठाकर एक भिन्न व सर्वथा नयी वीथि की ओर बढ़ाने का सुन्दर प्रयास है। यह नाटक सन्देश काव्य के सर्वाधिक सशक्त कारक मेघ की निजी व्यथा का यक्ष प्रश्न सामने रखता है।
तीसरा नाटक ‘काली बर्फ़’ विस्थापन और डायस्पोरा के दर्द से बुने कश्मीर के समसामयिक यथार्थ को स्वर देता है। यह उस त्रासद कथा की एक बूँद मात्र है जो आज व्यथा बनकर बह रही है और उसी व्यथा-सरोवर में कहीं-कहीं खिल रहे हैं स्मृति से लेकर आनेवाले कल तक फैले सपने—कमल-दल सपनों के।

ABOUT THE AUTHOR
मीरा कान्त –
1958 में, श्रीनगर में जन्म।
प्रकाशन: ‘हाइफ़न’, ‘काग़ज़ी बुर्ज’ और ‘गली दुल्हनवाली’ (कहानी-संग्रह); ‘ततःकिम्’, ‘उर्फ़ हिटलर’ और ‘एक कोई था कहीं नहीं-सा’ (उपन्यास); ‘ईहामृग’, ‘नेपथ्य राग’, ‘भुवनेश्वर दर भुवनेश्वर’, ‘कन्धे पर बैठा था शाप’ और ‘हुमा को उड़ जाने दो’ (नाटक); ‘पुनरपि दिव्या’ (नाट्य रूपान्तर) तथा ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दशक और हिन्दी पत्रकारिता’ शोधपरक ग्रन्थ ‘मीराँ : मुक्ति की साधिका’ का सम्पादन।
मंचन: ‘ईहामृग’ कालिदास नाट्य समारोह, उज्जैन में व ‘नेपथ्य राग’ भारत रंग महोत्सव 2004 में मंचित। ‘काली बर्फ़’ तथा ‘दिव्या’ का श्रीराम सेंटर, दिल्ली; ‘भुवनेश्वर दर भुवनेश्वर’ का बनारस, कलकत्ता व इलाहाबाद; ‘कन्धे पर बैठा था शाप’ का भोपाल व दिल्ली और ‘व्यथा सतीसर’ व ‘अन्त हाज़िर हो’ का जम्मू में मंचन।
पुरस्कार/सम्मान: ‘नेपथ्य राग’ के लिए वर्ष 2003 में मोहन राकेश सम्मान (प्रथम पुरस्कार), ‘ईहामृग’ के लिए सेठ गोविन्द दास सम्मान (2003), ‘ततःकिम्’ के लिए अम्बिकाप्रसाद दिव्य स्मृति सम्मान (2004), ‘भुवनेश्वर दर भुवनेश्वर’ के लिए डॉ. गोकुल चन्द्र गांगुली पुरस्कार (2008), ‘उत्तर-प्रश्न’ के लिए मोहन राकेश सम्मान (प्रथम पुरस्कार) 2008 एवं हिन्दी अकादमी, दिल्ली के साहित्यकार सम्मान (2005-6) से अलंकृत।

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