This book aims to shed light on the Originality of the Concept of Samskara, in which ritual, philosophical, and psychological aspects are interwoven. There are many implications of the word in both the Hindu Darsanas and Buddhist thought. Therefore, there are some comparisons with Western Philosophy or Psychoanalysis. An analysis of contexts and texts shows that the concept of Samskara is a universal key for Indian authors in many domains such as Rituals. This book uses Sanskrit texts and Pali texts to help us understand its meaning, connotation, and evaluations. Samskara refers to not only the perfective Hindu Life-cycle rites that imprint the psyche but to all kinds of “psychophysical compositions”, dynamic tendencies and tendencies as well as predispositions habits and traits. These morally qualified residuelle impressions are bodily, vocal and mental, as well as dream and memory-causing causes, and condition that encumber or encumber the mind. While samskaras can be beneficial at the practical level, when they are present in instincts and refined intelligence, they are often considered obstacles to the path of deliverance (moksa). Samskaras play an important role in explaining the unexplicable in the mysterious psycho-cosmological register of Law of karman, and doctrine of samsara. Yoga born antisamskaras are traceless and help to decondition and dis-encumber the psyche. According to the book, samskaras can be factors of cohesion and liaison, intelligibility and mediation, as well as continuity in time and space. They are also factors of bondage, release, and intelligibility.
The Philosophical Concept of Samskara
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Aadhunik Kavi Vimarsh
0 out of 5(0)आधुनिक कवि विमर्श –
‘डॉ. धनंजय वर्मा ने आधुनिकता को एक व्यापक सन्दर्भ में देखा-परखा है और विश्व साहित्य पर उनको दृष्टि रही है। उन्हें भारतीय सामाजिक परिवेश का भी ध्यान है। इसीलिए आधुनिकता सम्बन्धी उनका विवेचन किन्हीं आयातित सिद्धान्तों पर आधारित न होकर उनकी अपनी समझ बूझ से उपजा है। आधुनिकता के सन्दर्भ में धनंजय ने जिस रचनाशीलता पर विचार किया है उससे उन्होंने अन्तरंग साक्षात्कार किया है और हम सब आश्वस्त हैं कि उनका यह अध्ययन आधुनिकता के विषय में प्रचलित कई भ्रान्तियों को तोड़ेगा और हमें चीज़ों को सही सन्दर्भ में देखने की समझ देगा।’—डॉ. प्रेमशंकर, सागर
लेखक ने अपनी मौलिक दृष्टि से आधुनिकता, आधुनिकीकरण, समकालीनता, परम्परा आदि प्रत्ययों और विषयों में अभूतपूर्व विवेचन किया है। लेखक के चिन्तन, विषय के प्रति एप्रोच और विश्लेषण में अभूतपूर्वता है। आधुनिकता के प्रत्यय के सन्दर्भ में लोक से हटकर अपना विशिष्ट सोच-विचार प्रस्तुत किया है। इससे लेखकों, आलोचकों के मस्तिष्क में बने-बनाये ढाँचे टूटेंगे और आधुनिकता, समसामयिकता आदि के विषय में पुनर्विचार करना होगा। लेखक में उच्चकोटि की आलोचनात्मक क्षमता है और आद्योपान्त अपने दृष्टिकोण को अध्ययन और तर्कों से पुष्ट करने का प्रातिभ ज्ञान है।—डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
आलोचक ने हिन्दी के स्वच्छन्दतावादी कवियों को ग़ैर-आधुनिक सिद्ध करने के आलोचकीय भ्रमों का तार्किक समाधान किया है। मुझे नहीं लगता कि आधुनिकता में अन्तर्निहित विविध प्रवृत्तियों—धाराओं के बारे में इतनी समग्र पड़ताल हिन्दी में और कहीं उपलब्ध है इस पड़ताल का क्षितिज निश्चय ही देशज से लेकर वैश्विक है।—डॉ. कमला प्रसाद
इन पुस्तकों (आधुनिकता के बारे में तीन अध्याय, आधुनिकता के प्रतिरूप और समावेशी आधुनिकता) की विशेषता यही है कि ये शोध प्रबन्धों की जड़ता से ग्रस्त नहीं है। मौलिक समीक्षा की विचारशीलता और गम्भीरता इनमें आद्यन्त उपलब्ध है। कविता केन्द्रित आधुनिकता सम्बन्धी अध्ययन होने से धनंजय वर्मा ने अपनी पुस्तक-त्रयी में छायावाद से लेकर अज्ञेय और भारती (नागार्जुन और सुमन, मुक्तिबोध और शमशेर) तक की हिन्दी कविता को विश्लेषण का विषय बनाया है। एक तरह से यह आधुनिक हिन्दी कविता का इतिहास विश्लेषण भी है। धनंजय वर्मा की समावेशी आधुनिकता सम्बन्धी अवधारणा एवं कविता के विश्लेषण के कारक तत्त्व दरअसल भविष्य के समीक्षकों के लिए विचारशील पीठिका तैयार करते हैं। उनकी अवधारणा में देशज आधुनिकता के बीज तत्त्व बिखरे पड़े है।—डॉ. ए. अरविन्दाक्षन
यह विवेचन इतना सन्दर्भसम्पन्न और आलोचना प्रगल्भ है कि लगता है जैसे हम काव्य-आलोचना के साथ-साथ आधुनिक कविता के सन्दर्भ ग्रन्थ से या लघु एनसायक्लोपीडिया से साक्षात्कार कर रहे है। धनंजय की इस पुस्तक का यदि ठीक से नोटिस हिन्दी आलोचना और हिन्दी के साहित्यिक एवं भाषिक विकास की दृष्टि से लिया जाता तो एक बड़ा विमर्श आधुनिकता को लेकर हो सकता था।—डॉ. रमेश दवे
आधुनिकता के अबतक के विकास और उसके छद्म तथा वास्तविक, अप्रासंगिक और प्रासंगिक, अप्रामाणिक और प्रामाणिक रूपों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींचने की कोशिश की गयी है। धनंजय वर्मा आधुनिकता के समग्र वैचारिक चिन्तन से टकराते है।…धनंजय वर्मा पश्चिमी सन्दर्भों में और उनसे हटकर आधुनिकता के स्वरूप को स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं और आधुनिकीकरण पर विचार करने के लिए धनंजय वर्मा ने भारतीय सन्दर्भ और हिन्दी चिन्तन को आधार बनाया है।—डॉ. परमानन्द श्रीवास्तवSKU: VPG9326352963₹307.00₹410.00 -
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Adwaitka Upanishad
0 out of 5(0)अद्वैतका उपनिषद् –
आद्य शंकराचार्य भारत को और वैदिक परम्परा को प्राप्त हुआ दिव्य व्यक्तित्व है। गीता में कहा गया है कि जब धर्म की ग्लानि होती है तब मुक्त पुरुष को अवतार लेना पड़ता है। परन्तु भारत में 6-7वें शतक में देवत्व के समकक्ष विद्वान सन्त ने जीवन के पच्चीसवें वर्ष में वैदिक धर्मग्लानि हटाकर नव उत्साह से भारत में वैदिक धर्म की संस्थापना की और यह कार्य आगे अखण्डित और सामर्थ्य से चलता रहे, इस दूरदृष्टि से चार मठों की चार दिशाओं में स्थापना की। इसका परिणाम इतना सशक्त था कि आज तक वह सनातन वैदिक परम्परा हिन्दू नाम से दृढ़मूल है। और दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। आद्य शंकराचार्य जैसा बुद्धितेजस्वी महात्मा, प्रगल्भ विचारक, पन्थसमन्वय महर्षि इस भारत में होना और हिन्दू धर्म को प्राप्त होना, यह इस देश का और धर्म का उच्चतम पुण्यफल ही है। अवैदिक सम्प्रदायों का निरसन कर वैदिक सम्प्रदाय में समन्वय स्थापित कर उन्होंने सर्व सम्प्रदायों की परस्पर द्वेष व मत्सरवादी विचारधारा को समाप्त कर दिया। ‘अद्वैत सिद्धान्त’ की स्थापना करके तथा अपने सर्व देवताओं का गुणगान करने वाले अनेक स्तोत्रों के माध्यम से पुनः अद्वैत का सन्देश देते हुए ‘भक्तिमार्ग’ की बैठक दृढ़मूल की।
मराठी की प्रसिद्ध उपन्यासकार शुभांगी भडभडे ने अपने अमृत महोत्सव वर्ष में हिन्दू धर्म के लिए अमृत रूप महान तत्त्ववेत्ता आद्य शंकराचार्य को अपने उपन्यास का नायक चुना, यह सचमुच रत्नकांचन योग है।
शुभांगी भडभडे ने आद्य शंकराचार्य को साधारण मराठी पाठकों तक पहुँचाने की अपनी प्रतिज्ञा सफलता से पूरी की है। मराठी में रचित उपन्यास का इस हिन्दी अनुवाद को अनेक पाठक मिलें, यही आशा है।SKU: VPG9387919976₹712.00₹950.00 -
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Ajneya Rachanawali (Volume-5)
0 out of 5(0)अज्ञेय रचनावली-5
अज्ञेय एक ऐसे विलक्षण और विदग्ध रचनाकार हैं, जिन्होंने भारतीय भाषा और साहित्य को भारतीय आधुनिकता और प्रयोगधर्मिता से सम्पन्न किया है: तथा बीसवीं सदी की मूलभूत अवधारणा ‘स्वतन्त्रता’ को अपने सृजन और चिन्तन में केन्द्रीय स्थान दिया है। उनकी यह भारतीय आधुनिकता उन्हें न सिर्फ़ हिन्दी, बल्कि समूचे भारतीय साहित्य का एक ‘क्लासिक’ बनाती है। विद्रोही और प्रश्नाकुल रचनाकार अज्ञेय ने कविता, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, नाटक, आलोचना, डायरी, यात्रा वृत्तान्त, संस्मरण, सम्पादन, अनुवाद, व्यस्थापन, पत्रकारिता आदि विधाओं में लेखन किया है। उनके क्रान्तिकारी चिन्तन ने प्रयोगवाद, नयी कविता और समकालीन सृजन में निरन्तर नये प्रयोगों से नये सृजन के प्रतिमान निर्मित किये हैं। जड़ीभूत एवं रूढ़ जीवन-मूल्यों से खुला विद्रोह करते हुए इस साधक ने जिन नयी राहों का अन्वेषण किया, वे असहमति और विरोध का मुद्दा भी बनीं, लेकिन आज स्थिति यह है कि अज्ञेय को ठीक से समझे बिना नयी पीढ़ी के रचनाकर्म के संकट का आकलन करना ही मुश्किल है।
‘अज्ञेय रचनावली’ में अज्ञेय का तमाम क्षेत्रों में किया गया विपुल लेखन पहली बार एक जगह समग्र रूप में संकलित है। अज्ञेय जन्म-शताब्दी के इस ऐतिहासिक अवसर पर हिन्दी के मर्मज्ञ और प्रसिद्ध आलोचक प्रो. कृष्णदत्त पालीवाल के सम्पादन में यह कार्य विधिवत सम्पन्न हुआ। आशा है, हिन्दी साहित्य के शोधार्थियों एवं अध्येताओं के लिए अज्ञेय की सम्पूर्ण रचना सामग्री एक ही जगह एक साथ उपलब्ध हो सकेगी।SKU: VPG9326350815₹750.00₹1,000.00
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