Grammer/Granthawali
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Grammer/Granthawali
Bhushan Granthawali
भूषण ग्रन्थावली –
अब तक भूषण का एक ही ग्रन्थ ‘शिवभूषण’ प्रामाणिक रूप में प्राप्त है। शिव उनकी वीर, श्रृंगार और शान्त रसों की प्रकीर्ण रचनाएँ हैं। ‘शिवा बावनी’ और ‘छत्रसालदशक’ उनके द्वारा संगृहीत पोथियाँ नहीं हैं। भूषण का जन्मकाल जो ‘शिवसिंहसरोज’ में दिया गया है वह १७३८ है। ‘शिवभूषण’ के निर्माणकाल का जो दोहा मिलता है उसमें संवत् १७३० दिया गया है। जनश्रुति के अनुसार ‘शिवाबावनी’ पहले बनी और ‘शिवभूषण’ बाद में। ‘शिवाबावनी’ में सम्वत् १७३० के बाद की घटनाएँ हैं, इसलिए शिवभूषण के निर्माणकाल को एक महाशय जाली मानते हैं। शिवभूषण के निर्माणकाल का दोहा, हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों की ‘खोज की रिपोर्ट’ ( सन् १९२३ ) में दिया हुआ है। इसमें दो प्रतियों के विवरण हैं। एक तो वही प्रति है जिसके आधार पर श्रीमिश्रबंधु महोदयों ने अपनी भूषणग्रन्थावली सम्पादित की और दूसरी अन्यत्र की।SKU: VPG9350002643 -
Grammer/Granthawali
Mahadevi Sanchayita
महादेवी वर्मा संचयिता –
महादेवी वर्मा की प्रगतिशीलता केवल स्त्री सम्बन्धी प्रश्नों तक ही सीमित नहीं थी। उन्होंने इसके अलावा भी तमाम सामयिक प्रश्नों की विस्तार से विवेचना कर हमारे वर्तमान समय के बारे में भी सोचने की मजबूरी पैदा की। पिछड़े वर्गों से आने वाले शिक्षार्थियों की समस्या आज़ादी के पचपन वर्ष बाद भी पूरी तरह सुलझी नहीं है।
महादेवी के ऐसे तमाम लेखों का बहुत बड़ा आकर्षण रचनाकार का साहसी व्यक्तित्व है। उन्होंने न जीवन में भय माना न लेखन में उनकी निडर बनावट ने ही उन्हें ज़रूरत पड़ने पर औरों के साथ ख़ुद अपने ख़िलाफ़ खड़े होने की क्षमता दी। परिवार, धर्म, परम्परा, समाज, राजसत्ता किसी का वर्चस्व उन्हें भयभीत नहीं कर सका। उन्होंने अपने समय में पढ़ने की ही नहीं वेद पढ़ने की ज़िद की। गृहस्थ जीवन का परित्याग करके छोटी उम्र में भिक्षुणी होने का निर्णय लेने में उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया उससे अधिक इस इरादे को छोड़ने में। इतना ही नहीं उन्होंने इस घटना के प्रेरक कारण का उद्घाटन करने में भी कोई संकोच नहीं किया और उसके बाद अपने निजी जीवन के सामने ऐसी अभेद्य दीवार खींच दी कि उसके भीतर ताक-झाँक करने या पूछताछ करने का अधिकार उन्होंने किसी को दिया नहीं और साहस किसी को हुआ नहीं। उसके बाद लोगों ने उतना ही जाना जितना उन्होंने स्वयं लिखकर बताया। गोकि इस पुस्तक में आत्म स्वीकृतियाँ भी हैं और रचना-प्रक्रिया का विवेचन काफ़ी बेबाक शैली में किया गया है।
SKU: VPG8170551966 -
Grammer/Granthawali
Makhan Lal Chaturvedi Rachanawali (10 Volume Set )
माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली – 1 –
माखनलाल चतुर्वेदी ने लगातार एक भारतीय अस्मिता को स्थापित करने का प्रयत्न किया, जो स्वाधीनता संघर्ष के युग सन्दर्भ में कोई अचरज की बात नहीं थी, पर समाज को आत्मवान बनाये रखने में भी अविराम भाव से लगे रहे-उन परिस्थितियों में भी जिनमें शरीर भी संकटापन्न रहता है और उस मानसिकता के बीच भी जो सैक्युलरिज़्म के नाम पर आत्मा को ही बिल्कुल नकार देना चाहती थी। सांस्कृतिक और राजनीतिक सन्दर्भ में ये दो बातें कहकर साहित्यिक सन्दर्भ में यह भी कहूँ कि उस युग में, जब अधिकतर लेखक एक विखण्डित व्यक्तित्व वाले लेखक होने लगे थे, माखनलालजी के अखण्डित व्यक्तित्व ने अपने समकालीनों के सामने एक आदर्श भी रखा, एक चुनौती भी खड़ी की। किसी भी देश, किसी भी समाज के लिए अखण्ड व्यक्तित्व बहुत बड़ी उपलब्धि होता है। -स. ही. वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
चतुर्वेदीजी के साहित्यिक रूप का परिचय मुझे उनके नाटक “कृष्णार्जुन-युद्ध” से पहले-पहल प्राप्त हुआ था। मुझे स्मरण है कि इसे पहली बार पढ़ने पर दो प्रभाव पड़े थे। एक तो यह कि देश के प्राचीन कथानकों को लेकर आधुनिक काल की समस्याओं पर किस प्रकार नया प्रकाश डाला जा सकता है। दूसरे यह कि हिन्दी में साहित्यिक नाटक भी रंग-मंच की दृष्टि से सफलता के साथ लिखा जा सकता है। यह वास्तव में खेद का विषय है कि इस परम्परा को हिन्दी नाटक साहित्य के अन्तर्गत आगे विकसित नहीं किया गया। -डॉ. धीरेन्द्र वर्मा
प. माखनलाल चतुर्वेदी ने एक साधारण स्कूल मास्टर को हैसियत से उठकर अपने ढंग का जो अनोखा, प्रतापी और मौलिक व्यक्तित्व निर्माण किया है वह सचमुच ही अभिनन्दनीय है’, ‘वे एक साथ ही शूरातन और श्रृंगार, रस और तेज़, प्रणय और प्रताप के कवि हैं। – के.एम. मुंशी
उनका जो कुछ भी साहित्य मैंने पढ़ा है उसमें विचारों की और भावनाओं की आर्यता ही मैंने पायी है। उनके कारण हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि हुई है। उनकी रसिकता से भी लोग प्रभावित हुए हैं उनका स्मरण होने मात्र से चित्त प्रसन्न होता है। -काका कालेलकर
यह नाटक चरित्र प्रधान न होकर विचार प्रधान हो गया है। कर्तव्याकर्तव्य के निर्णय में घटना और पात्र इस प्रकार घुल-मिल गये हैं कि उनका स्वतन्त्र व्यक्तित्व मुखरित नहीं होता और न्याय के लिए बलिदान ही मुख्य रूप में समाज के सामने आता है। अतएव इसे न तो घटना-प्रधान और न ही चरित्र प्रधान कहा जा सकता है। अतः इसे विचार प्रधान नाटक कहना ही उचित होगा। पं. माखनलाल ने भारतेन्दु और प्रसाद युग की नाट्यकला को जोड़ने के लिए एक श्रृंखला का कार्य किया। नाटक में विचारों पर बल देना आधुनिक युग की नाट्यकला की विशेषता है। इस मेधावी साहित्यकार ने नाटक को एक नवीन दिशा में मोड़कर नाट्य-क्षेत्र में स्तुत्य कार्य किया। -डॉ. दशरथ ओझा
…जब हम माखनलालजी के समस्त गद्य-लेखन पर दृष्टि डालते हैं, तो हमें उसके वैविध्य को देखकर आश्चर्य होता है, कहीं राष्ट्रीय भावना का ओजस्वी प्रकाशन है, कहीं लेखन के सामाजिक दायित्व का आग्रहपूर्ण निवेदन है और कही लेखक दृश्यों और पात्रों के अंकन में रत है और कहीं-कहीं अपने वैष्णव भाव को लिए हुए चिन्तन की गहराइयों में खो गया है। -डॉ. प्रेमशंकर
अन्तिम पृष्ठ –
कितने संकट के दिन हैं ये। व्यक्ति ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ भूख की बाज़ार-दर बढ़ गयी है, पायी हुई स्वतन्त्रता की बाज़ार-दर घट गयी है। पेट के ऊपर हृदय और सिर रखकर चलने वाला भारतीय मानव मानो हृदय और सिर पर पेट रखकर चल रहा है। खाद्य पदार्थों की बाज़ार-दर बढ़ी हुई है और चरित्र की बाज़ार-दर गिर गयी है।SKU: VPG9350008492 -
Grammer/Granthawali
Rang Dastavez Sau Saal (2 volume Set )
रंग दस्तावेज़ (खण्ड – 1-2 ) –
(खण्ड – 1) –
इन निबन्धों में पहली बार नाटक के प्रदर्शनमूलक स्वरूप और दर्शकों की सामूहिक चेतना का प्रश्न उठाया गया था, परन्तु यह एक दिलचस्प तथ्य है कि स्वाधीनता संग्राम के परिवेश में अधिकांश नाटककारों और रंगकर्मियों की रुचि चिन्तन की अपेक्षा रंगपरिवेश के निर्माण में अधिक रही। इसलिए बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र और केशवराम भट्ट आदि ने अपने समय के ‘तमाशबीन’ को ‘सामाजिक’ बनाने का प्रयास किया। रंगकर्म की कई सम्भावनाओं को ठोस रूप देने के लिए वे पारसी रंगमंच की ‘विकृतियों’ के साथ ब्रिटिश सरकार से भी लड़ाई जारी रखे हुए। यह कहा जा सकता है कि उनके लेखन और प्रदर्शन का स्वरूप पारसी रंगमंच का सामना करने के लिए काफ़ी नहीं था। वे विरोध करने के बावजूद उसके कई रूपों और तत्त्वों को अपनाते रहे। फिर भी, औपनिवेशिक वर्चस्व के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए उनके सामने सामाजिक नवजीवन का लक्ष्य था। यही बिंदु उन्हें पारसी रंगमंच से अलग करता था। अल्पजीवी होने के बावजूद विभिन्न रंगकेन्द्रों के नाटककार, मंडलियाँ और रंगकर्मी स्थानीय स्तरों पर बौद्धिक और रंगमंचीय हलचल पैदा करने में कामयाब रहे।
(खण्ड – 2) –
यहाँ प्रस्तुत लेखों में एक ‘भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र’ लेख (1913) में प्रेमचन्द ने अपनी सहज शैली में भारतेंदु के नाटककार व्यक्तित्व का सजीव चित्र उभारते हुए उनके नाटकों पर कुछ टिप्पणियाँ की हैं। जब वह लिखते हैं कि “…बाबू हरिश्चन्द्र के मौलिक नाटकों में एक ख़ास कमज़ोरी नज़र आती है और वह है कथानक की दुर्बलता।…इसी प्लाट की कमज़ोरी ने अच्छे कैरेक्टरों को पैदा न होने दिया।…..दुर्बल घटनाओं की स्थिति में ऊँचे कैरेक्टर क्योंकर पैदा हो सकते हैं।” तो हमारे सामने उनका एक सन्तुलित आलोचक रूप प्रकट होता है। परन्तु जब वे ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ तथा ‘अन्धेर नगरी’ के बारे में कहते हैं कि ये रचनाएँ नाटक नहीं, बल्कि ‘राष्ट्रीय और सामाजिक प्रश्नों पर हास्य-व्यंग्यपूर्ण चुटकले हैं’ तो उनकी रंगदृष्टि की सीमाएँ भी साफ़ उभर आती हैं। प्रेमचन्द पारम्परिक नाट्यरूपों के ताने-बाने से बुनी उनकी लचीली दृश्यरचनाओं को विश्लेषित नहीं कर सके। वस्तुतः, ये नाटक संवादों की अपेक्षा दृश्य-प्रधान प्रस्तुति-आलेख हैं, जबकि प्रेमचन्द ने इन्हें यथार्थवादी रंगशिल्प की दृष्टि से परखा है।
इस लेख से अलग मार्क्सवादी आलोचक प्रकाशचन्द्र गुप्त ने ‘प्रसाद की नाट्यकला’ (1938) में प्रसाद के नाटकों का विश्लेषण करते हुए, शास्त्रीयता के वाग्जाल से मुक्त नाट्यालोचन का परिचय दिया है। तत्कालीन सीमाओं को देखते हुए उन्होंने कहा है कि “प्रसाद ने हिन्दी में एक नये ढंग के नाटक की सृष्टि की।…उचित परिस्थितियों में अभिनय के योग्य भी हैं।”
अलग-अलग शैलियों में लिखे गये ये लेख दो महत्त्वपूर्ण नाटककारों की परख के माध्यम से एक पाठक (प्रेमचन्द) और एक आलोचक (प्रकाशचन्द्र गुप्त) की दृष्टियों को सामने लाते हैं। प्रेमचन्द ने अपने एक अन्य लेख ‘हिन्दी रंगमंच’ में पारसी रंगमंच का विवेचन जिस दृष्टि से किया है, वह रंगमंच से उनके गहरे जुड़ाव की ओर संकेत करता है। प्रकाशचन्द्र गुप्त ने नाटक पर भले ही अधिक न लिखा हो, परन्तु उनका लेख सन्तुलित नाट्यदृष्टि का प्रारम्भिक परिचय ज़रूर देता है।SKU: VPG8181970183