Research (शोध)
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Research (शोध)
Aswaghosh Ki Kavyakritiyon Ka Sanskritik Adhyayan ( अश्वघोष की काव्यकृतियों का सांस्कृतिक अध्ययन )
Research (शोध)Aswaghosh Ki Kavyakritiyon Ka Sanskritik Adhyayan ( अश्वघोष की काव्यकृतियों का सांस्कृतिक अध्ययन )
भारतीय संस्कृति अपनी अनेकता में एकता के लिए प्रसिद्ध रही है। वैदिक काल से लेकर इसकी विभिन्न धाराओं की उपलब्धि होती है। वैदिक वाङ्मय अपने कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड की परस्पर पूरक शाखाओं में विभक्त है। कर्मकाण्ड की जटिलता तथा आगे चलकर उसमें प्रविष्ट प्रदर्शन ने छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में बुद्ध के रूप में एक क्रान्तिकारी और सुधारवादी चिंतन को जन्म दिया। बुद्ध का जन्म यद्यपि परंपरावादी परिवार में हुआ था, किंतु उन्होंने स्वयं अपनी युक्तियों तथा चिंतन से रूढ़ियाँ भग्न कर दी एवं एक नए चिंतन को जन्म दिया।
बुद्ध ने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व से तथा हृदयस्पर्शी प्रवचन से समाज के विभिन्न स्तरों के लोगों को प्रभावित किया तथा उन्हें अपने धर्म में दीक्षा दी। यह धारा प्रबल रूप से प्रवाहित हुई। अश्वघोष जैसे ब्राह्ममण धर्मावलम्बी भी इस धर्म में कालक्रम से दीक्षित हुए। उनकी कवित्व शक्ति, संगीतिज्ञता तथा वाग्मिता ने बौद्ध धर्म का प्रबल प्रचार किया। अश्वघोष ने जीवन के सभी पक्षों का अनुभव किया था ब्राह्ममणधर्म तथा बौद्धधर्म का इन्हें साक्षात् अनुभव था, उनके एक-एक विवरण से वे परिचित थे। इसी प्रकार समाज, रिवार, कला, वस्त्राभूषण, मनोरंजन के साधन, राजनीति, आर्थिक जीवन, शिक्षा, साहित्य और दर्शन से भी इनका गहन परिचय था। सांस्कृतिक जीवन के इन पक्षों को अश्वघोष ने अपने काव्यों में वाणी दी है। यद्यपि जीवन के ये पक्ष महाकवि अश्वघोष की कृतियों में अत्यधिक मुखर नहीं है, फिर भी उनमें अपनी विशिष्टता तो अवश्य है। बुद्ध के जीवन चरित से सम्बद्ध इनका बुद्धचरित नामक महाकाव्य हो अथवा सुंदरी तथा सुंदरनन्द के प्रणय की पृष्ठभूमि पर आश्रित सुंदर-नन्द को मोक्ष धर्म में दीक्षित करने की कथा को काव्यरूप देनेवाला सौंदरनन्द हो, उभयत्र अश्वघोष ने उस पुरातन कथानक को नई अभिव्यक्ति देने के माध्यम से सांस्कृतिक जीवन विषयक अपनी अनुभूतियों को प्रकाशित करने का कोई समुचित अवसर छोड़ा नहीं है।
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Beete Dashak Ki Desh Dasha Avm Vartamaan Chunautiyan (बीते दशक की देश दशा एवं वर्तमान चुनौतियां)
Research (शोध)Beete Dashak Ki Desh Dasha Avm Vartamaan Chunautiyan (बीते दशक की देश दशा एवं वर्तमान चुनौतियां)
‘बीते दशक की देश-दशा एवं वर्तमान चुनौतियाँ’ शीर्षक पुस्तक श्री सुरेश रूंगटा के समय-समय पर विभिन्न पत्रों में लिखे गये लेखों का संकलन है। ये लेख चीते दशक के कालखण्ड. में देश-विदेश के साथ-साथ बिहार की आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हैं. तथा विकास हेतु सकारात्मक संकेत भी देते हैं।
किसी भी व्यक्ति, समाज, राज्य एवं राष्ट्र के लिए आर्थिक उन्नति, विकास के लिए महत्वपूर्ण सोपान होता है। लेखक तदर्थ बड़े उद्योगों के साथ-साथ कुटीर उद्यागों को भी बढ़ाने की बात करता है। बिजली और बाद जैसी विभीषिकाओं पर भी विचार प्रस्तुत किये गये हैं।
इस प्रकार जीवन के अनुभवों के आधार पर लिखी गयी यह पुस्तक आम आदमी के साथ-साथ शोध के विद्यार्थी के लिये भी उपयोगी होगी। साथ ही राज्य के विकास तक में सहायक सिद्ध होगी, यह कहा जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि इसे लोगों तक पहुँचाया जा सके तो वर्तमान चुनौतियों को सहजता से सुलझाने में आसानी होगी। मैं इसे उत्थान हेतु प्रेरणाप्रद मानती हैं।
‘बीते दशक की देश-दशा एवं वर्तमान चुनौतियाँ पुस्तक श्री सुरेश सँगटाजी की देश की दशा और दिशा पर गहन अध्ययन और पर्यवेक्षण का आक्षरिक रूप है। रुँगटाजी व्यवसाय जगत् के कर्मठ और मनस्वी सदस्य हैं। धनदेवी की कृपा के अतिरिक्त इन्होंने वाग्देवी की भी विशेष कृपा आयत की है। यह इनके द्वारा लिखित प्रस्तुत ग्रंथ से स्पष्टतः प्रमाणित है। इस कृति में इन्होंने देश-दशा का विभिन्न पहलुओं से पर्यवेक्षण किया है और एक अर्थशास्त्री की तरह जो सुझाव दिये हैं, वे तर्क सम्मत तो है ही, इनके सुझावों का उपयोग बिहार सरकार के लिए भी दिनिर्देश करनेवाला प्रमाणित होगा।
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Bharat Mein Loktantra Visheshtayein Pirayein Avm Parivartan (भारत में लोकतंत्र विशेषें, विशेषताएं, एवं परिवर्तन)
Research (शोध)Bharat Mein Loktantra Visheshtayein Pirayein Avm Parivartan (भारत में लोकतंत्र विशेषें, विशेषताएं, एवं परिवर्तन)
यह किताब राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं और संगोष्ठियों में प्रकाशित व प्रस्तुत ऐसे लेखों का संकलन है जो भारत में लोकतंत्र के गतिविज्ञान पर विचार करते हैं। निश्चित रूप से हमने लोकतंत्र के बुनियादी अभिलक्षणों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है, तथापि हमारी लोक चेतना में लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी नहीं हैं। इस कारण हमारे लोकतंत्र को कई प्रकार की पीड़ाओं से गुजरना पड़ा है, जैसे अपराधीकरण, सांप्रदायिकता, जातिवाद और भ्रष्टाचार आदि। लोकतंत्र अनिवार्य रूप से एक दृष्टिकोण है : तार्किकता, सहिष्णुता और समझौते का दर्शन है। निस्संदेह लोकतंत्र का सारत्य जनता की भागीदारी में निहित है। इतिहास से हमने जो सबक सीखे हैं, उनके आधार पर हमारे लोकतंत्र के संक्रमण काल को पूर्ण स्वतं में परिणत किया जा सकता है।
राष्ट्रवाद एक विशिष्ट आधुनिक संवृति है। इसे मन की एक ऐसी स्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें व्यक्ति को लगता है कि राष्ट्र राज्य के प्रति सर्वोच्च धर्मनिरपेक्ष वफादारी का एहसानमंद है। विश्व राजनीति में राष्ट्रवाद का तात्पर्य लोगों के साथ राज्य या राष्ट्र की पहचान या विज्ञान के सिद्धांतों के अनुसार राज्य की सीमा निर्धारित करने को नीयता से है। इतिहास में सर्वत्र, मनुष्य को अपने पैतृक मिट्टी अपने माता-पिता की परंपराओं और क्षेत्रीय अधिकारियों की स्थापना से जोड़ा राष्ट्रवाद ने विशेष और संकीर्ण, भिनता और राष्ट्रीय विशेषता पर बल दिया है। राष्ट्रवाद के विकास के क्रम में यह प्रवृत्तियाँ अधिक स्पष्ट होती.
भारतीय राष्ट्रवाद इसके लक्ष्यार्थ से कतिपय अर्थों में अलग है। य से भारत शायद ही कभी एक ही राज्य रहा हो। कभी-कभी राज्यों के पैरों में एक बड़ा राज्य होता था, बल्कि कभी-कभी ऐसा भी नहीं होता था, बस छोटे राज्यों की एक सभा एक दूसरे के साथ और निरंतर बदलाव की स्थिति में होती थी।
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Bharat Mein Rajnaitik Sangathanon Ka Vikas ( भारत में राजनैतिक संगठनों का विकास ) 1919-1947
Research (शोध)Bharat Mein Rajnaitik Sangathanon Ka Vikas ( भारत में राजनैतिक संगठनों का विकास ) 1919-1947
भारत में राजनैतिक संगठनों का farmer (1919-1947) बिहार के संदर्भ में नामक पुस्तक के माध्यम से यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि उल्लिखित काल खण्ड में बिहार में विभन्न राजनीतिक दलों एवं संगठनों का विकास एक रूप से नहीं हुआ । अन्तरों. मतभेदो एव अर्न्तविरोधों के बावजूद सब की एक समान लक्ष्य था और वह था ब्रिटीश साम्राज्य से देश को मुक्ति । सभी दल एवं संगठन इस बात पर एक मत थे कि महात्मा गाँधी उनके एवं देश के सर्वमान्य नेता थे। सिर्फ मुस्लिम लीगो को छोड़कर ।
आठ अध्यायों के माध्यम से विकास की विवेचना विस्तार पूर्वक किया गया है. जो आने वाली भावी पीढ़ी को जानने और समझने में उनका मार्ग दर्शन करेगी ।
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Bhojpuri Sahitya Ka Samikshatmak Itihaas ( भोजपुरी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास )
भोजपुरी भाषा हिन्दी की अन्य भाषाओं की अपेक्षा अधिक व्यापक है । इसका क्षेत्र भी अति विस्तृत है। बोलने वालों की संख्या भी अत्यधिक है। भारत के अलावे विदेशों-फिजी, मारिसस, सूनीनाम. द्विनिडाड आदि देशों में भोजपुरी विकसित भाषा है। और उन देशों में यह सर्वप्रधान भाषा के रूप में स्वीकृत और अंगीकृत है। भोजपुरी भाषा के विकास क्रम को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इसका भविष्य उज्ज्वल है। काल क्रम से यह विश्व की एक अति प्रमुख भाषा का रूप ले सकती है।
प्रस्तुत पुस्तक की सीमा और मेरी अनभिज्ञता के कारण भोजपुरी के बहुत से रचनाधर्मी, कलाकारों के संबंध में यदि कुछ नहीं कहा गया है तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि मेरे मन- हृदय में उनके प्रति आदर का भाव नहीं है मैं उन सभी भोजपुरी के रचनाकर्मियों के प्रति हार्दिक सम्मान व्यक्त करते, यह आश्चर्य की बात है कि हिन्दी-भाषा-परिवार की भाषाओं में विशाल जन-समुदाय द्वारा बोली जाने वाली और अपने स्वरूप में विशेष सशक्त भोजपुरी में उन्नीसवीं सदी तक साहित्य नहीं लिखा गया। यह नहीं कि उसे बोलने वाले जन-समुदाय को उससे लगाव नहीं रहा। लगाव है और गहरा है और इसका एक प्रमाण तो यही है कि इस जन-समुदाय के लोग विदेशों में जहाँ-तहाँ जाकर अच्छी संख्या में बसे, वहाँ-वहाँ भोजपुरी के माध्यम से अपनी अभिघाती करते रहे। तब यह समझ में नहीं आता कि मध्यकालीन लोक जागरण के क्रम में जब ब्रज, आवधी, राजस्थानी, पंजाबी और बंगला वगैरह में साहित्य लिखा जाने लगा तब भोजपुरी में क्यों नहीं लिखा गया ? इसमें संदेह नहीं कि उस समय के संतों और भक्तों की कविता में भोजपुरी मिली हुई दिखलायी पड़ती है पर यह तो है ही कि स्वतंत्र रूप में उसे अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं बनाया गया। इससे स्पष्ट है कि भोजपुरी में साहित्य के रूप में जो कुछ लिखा गया इससे स्पष्ट है कि भोजपुरी में साहित्य के रूप में जो कुछ लिखा गया वह बीसवीं सदी में, विशेष रूप से उसके उत्तरार्द्ध में। इस स्थिति में उसके साहित्य के इतिहास के संबंध में सोचना एक तरह से महत्वाकांक्षापूर्ण उद्यम सदभाव अस्वाभाविक नहीं है। वस्तुतः इतिहास जिसे कहा गया है वह भोजपुरी में विभिन्न विधाओं के रूप में लिखे गये साहित्य का लेखा-जोखा, विवरण है। डॉ० उदय नारायण तिवारी ने पचास वर्ष पहले ‘भोजपुरी भाषा और साहित्य में जो काम किया था उसे आगे बढ़ाते हुए आज तक की उपलब्धियों की प्रस्तुति का महत्वपूर्ण काम डॉ० चन्द्रमा सिंह ने किया है।
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Bihar Ke Kaljayi Shilpkar ( बिहार के कालजयी शिल्पकार )
मानव जीवन में कला का महत्त्व आदिम युग से ही है। शुरूआती दौर में लोग अपनी आवश्यकता के अनुरूप जरूरत की कलात्मक चीजों का निर्माण करते आहिस्ता आहिस्ता मानव मस्तिष्क के विकास के क्रम में कला के रूपों में तब्दीलियों तो आयी ही, यह लोगों के विचारों भावनाओं, सपनों कुवाओं एवं अंतर भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम भी बन गयी। तब से आज तक वह विभिन्न रूपों में हमारे सामने है।
बिहार के विभिन्न क्षेत्रों गाँवों करयों एवं शहरों में भिन्न-भिन्न तरह की बोलियाँ बोली जाती है। विभिन्न तरह की रखें भी संपादित होती है विभिन्न जातियाँ भी हैं जिनकी अपनी-अपनी पराऐं है और उनके घर-आँगन में अलग-अलग कलाएं विकसित हुई है। नन्हे मुन्नी का आगमन हो शादी-ब्याह का मालिक अवसर त्योहारी उत्पादों की घड़ी हो या देवपूजन की शुभ बेला विधि प्रकार की कलाकृतियों का सृजन होता रहता है। इनकी उपस्थिति मात्र से जीवन में रंग भर जाता है, जीवन सुखमय एवं रंगीन हो जाता है।
बिहार के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में ढेर सारे शिल्पकार शिल्प-सृजन में अनवरत लगे हुए हैं। कला की उनकी अपनी दुनिया है। उनकी कला को समझना, आत्मसाल करना और सूक्ष्मता के साथ उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को शब्दों में बाँधना बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है। उस चुनौती को स्वीकार कर अशोक कुमार सिन्हा ने इनके जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं और उनकी कला के अभिलेखीकरण का प्रयास किया है। ‘बिहार के कालजयी शिल्पकार नामक इस पुस्तक में राज्य के उन बीस शिल्पकारों की जीवनी है, जिन्होंने बिहार के हस्तशिल्प को सहेजने और संवारने का काम किया है। ये सभी कलाकार अपने-अपने शिल्प में अद्वितीय हैं।
सभी की पहचान राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है। एक तरफ अपनी मौलिकता एवं विलक्षणता से संपूर्ण विश्व को आकर्षित करने वाली मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग के कलाकारों की चर्चा है तो दूसरी तरफ मिट्टी के शिल्पकार भी हैं। पत्थर को तराशकर मूर्ति बनाने वाले की कहानी भी समाहित है। इस तरह विभिन्न क्षेत्रों के बीस कलाकारों, शिल्पियों की अलग-अलग
की कहानी भी समाहित हैं। इस तरह विभिन्न क्षेत्रों के बीस कलाकारों, शिल्पियों की अलग-अलग तकनीक, रचना-प्रक्रिया, माध्यम, विषय-वस्तु रंग-रोगन एवं रूप- आकारों को पैनी दृष्टि के साथ अशोक कुमार सिन्हा ने विश्लेषित किया है। बिहार के शिल्पकारों के जीवन और उनकी कार्यशैली आज तक एक भी पुस्तक का प्रकाशन नहीं हुआ था। यह पहली बार हुआ है कि शिल्पकारों की जीवन-गाथा और रचनाशीलता को केन्द्र में रखकर एक किताब लिखी गई है। वाकई यह ऐतिहासिक कार्य है।
श्री अशोक कुमार सिन्हा 1990 के दशक से लोककला के क्षेत्र में लेखन कर रहे हैं। पुस्तक में उनकी. भाषा बहुत ही सुग्राहय है। पढ़ते-पढ़ते हम कहीं खो जाते हैं। शब्दों के माध्यम से शिल्पकारों की दुनिया में हम भ्रमण करने लगते हैं।
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Research (शोध)
Buddhkalin Samaj Mein Madhyam Varg Ki Sanrachna ( बुद्धकालीन समाज में मध्यम वर्ग की संरचना )
Research (शोध)Buddhkalin Samaj Mein Madhyam Varg Ki Sanrachna ( बुद्धकालीन समाज में मध्यम वर्ग की संरचना )
बुद्धकालीन समाज में मध्यम वर्ग की संरचना नामक इस पुस्तक में लेखिका द्वारा यह दिखलाने का प्रयास किया गया है कि बुद्धकालीन समाज में मध्यम वर्ग की क्या स्थिति थी । पुस्तक को सात अध्यायों में बाँटा गया है, जिसमें क्रमश: विषय प्रवेश एवं अध्ययन के स्रोत, मध्यम वर्ग का सामाजिक स्वरूप, मध्यम वर्ग की आर्थिक स्थिति, मध्यम वर्गीय परिवार में नारी की भूमिका, मध्यम वर्ग का शहरी एवं ग्रामीण परिवेश, मध्यम वर्गीय परिवार में शिक्षा का महत्व, मध्यम वर्गीय समाज के आमोद-प्रमोद एवं धार्मिक कार्य का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया हैं ।
आशा है कि यह पुस्तक बुद्धकालीन समाज में मध्यम वर्ग की स्थितियों के बारे में जानने वाले जिज्ञासु पाठकों एवं शोध कार्य में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी ।
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Medical Psychology Book, Research (शोध)
Chikitsa Manovigyan ( चिकित्सा मनोविज्ञान )
यह पुस्तक स्नातक एवं स्नातकोत्तर मनोविज्ञान के साथ साथ नैदानिक या चिकित्सा मनोविज्ञान में एम० फिल० की पढाई कर रहे विद्यार्थियों को ध्यान में रख कर लिखा गया है। इस पुस्तक में कुल पाँच अध्याय है ( अध्याय 1: परिचय, उदेश्य एवं क्षेत्रय अध्याय 2: मानसिक रोग कारण, प्रकार एव लक्षणय आध्याय-3- नैदानिक समस्यायें अध्याय 4 मापन एवं निदानय अध्याय 5 मनोचिकित्सा परामर्श । ) जो चिकित्सा मनोविज्ञान के परिचय से लेकर मानसिक विकृति या रोग क्या है, इसके कारण, लक्षण एवं रोग प्रकार सहित रोग निदान तथा चिकित्सा प्रकार तक का वर्णन है जिससे कमजोर से कमजोर विद्यार्थी भी विषय वस्तु को भलीभाँती समझ कर इसका लाम उठा सकते है। चिकित्सा मनोविज्ञान में चिकित्सा के साथ परामर्श का भी रोगी के रोग उपचार में बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है अतः इस बात को ध्यान में रखकर परामर्श की चर्चा इस पुस्तक में विशेष रूप से की गई है। मनोचिकित्सा एवं परामर्श आधुनिक समय की मांग है। इन दोनों बिंदुओं पर यह पुस्तक पुरी तरह केन्द्रित है। इस पुस्तक में कुछ शोध परख बातों का भी उल्लेख है जिससे विद्यार्थी विषय को गंभीरता से समझ सकते है। संक्षेप में, इस पुस्तक में विषय को सरल बनाकर गागर में सागर भरने का एक प्रयास मात्र किया गया है।
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Research (शोध)
Dr. Mithilesh Kumari Mishra (Vyaktitva Aur Krititva) डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र (व्यक्तित्व और कृतित्व)
Research (शोध)Dr. Mithilesh Kumari Mishra (Vyaktitva Aur Krititva) डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र (व्यक्तित्व और कृतित्व)
1988 में डा० मिथिलेश कुमारी मिश्र की रचनाओं से मेरा परिचय हुआ । डा० मिथिलेश कुमारी मिश्र ने हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी में मौलिक रचनाएँ की इनमें से दाक्षायणी और देवयानी महाकाव्य है । संस्कृत में आम्रपाली नाटक है । दाक्षायणी और देवयानी में महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षण अधिकांश पूरे हुए हैं और रोचकता में भी कोई कमी नहीं है । अंग्रेजी काव्य इण्डिया में भारतीय संस्कृति को उजागर करने वाली मानव जीवन की चिरंतन समस्याओं का उठाया गया है । अस्थिदान में मानव कल्याण को केन्द्र बिन्दु बनाया गया है। सुजान में इतिहास के रक्त रंजित पन्नों का सजीव बिम्ब प्रस्तुत देवयानी, आम्रपाली, सुजान और इण्डिया में नारी के विभिन्न पहलुओं और विभिन्न भूमिकाओं को बड़ी सतर्कता के साथ चित्रित किया गया है। इतना होने पर भी डा० मिथिलेश कुमारी मिश्र या उनकी कृतियों पर आलोचनात्मक कार्य नहीं हुआ। इन कृतियों को पढ़कर मुझे आश्चर्य और दुःख भी हुआ कि ऐसी श्रेष्ठ कृतियों का नाम तक लोगों के बीच नहीं पहुंचा। साना कि इन कृतियों पर कोई शोधकार्य किया जाय जिससे साहित्य जगत् को लाभ हो साहित्य प्रेमी इस शोध प्रबन्ध का स्वागत करेंगे एवं इसका लाभ उठायेंगे ।
प्रस्तुत शोध प्रबंध उक्त विचार को असत्य एवं निराधार साबित करता है। प्रस्तुत ग्रंथ शोध प्रबंध के रूप में लिखा हुआ है। इसमें डॉ. मिथिलेश कुमारी की जीवनी का जो चित्र प्रस्तुत है, उससे पता चलता है कि डॉ. मिथिलेश कुमारी साहित्यिक प्रतिभा संपन्न मनीषी ही नहीं, परन्तु मानवता की सच्ची संविका भी हैं। इसलिए ही उनकी कृतियों में पौराणिक नारियों की सेवा-परायणता का मार्मिक चित्रण हुआ है। देवयानी की शर्मिला के सुख से कयर्थियों घोषणा करती है ।
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Research (शोध), Tales of the Slaves Book, दासों की दास्तान
Duniyaan Ki Daashon Ki Dashtan (दुनिया की दासों की दास्तान )
Research (शोध), Tales of the Slaves Book, दासों की दास्तानDuniyaan Ki Daashon Ki Dashtan (दुनिया की दासों की दास्तान )
दुनियाँ के दासों को दास्तान पुस्तक एक तरह से इतिहास का पुनर्लेखन है। इतिहास लिखते समय लेखकों को सभी तरह के पूर्वाग्रहों दुराग्रहों से दूर होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका है। इसका परिणाम यह हुआ कि अभी भी इतिहास के मौलिक तत्व जनमानस के निगाहों से ओपाल हैं। साहित्य में भी ऐसा ही हुआ है। निराला नागार्जुन एवं अन्य कुछ प्रगतिशील साहित्यकारों को छोड़ दिया जाय तो साहित्य सम्राटों, राजा-रानियों एवं नवाबों के ईर्द गिर्द घूमता नजर आयेगा। भारतीय इतिहास में यहाँ लिखा हुआ मिलता है कि विश्व प्रसिद्ध दा विश्वविद्यालय को 1199 में बख्तियार खिलजी ने नष्ट कर दिया था। काश प्रसाद जायसवाल के शोध संस्थान के खोजों से पता चला है कि बख्तियार खिलजी बख्तिार से दक्षिण गया हो नहीं था। नालन्दा विश्वविद्यालय को बौद्ध धर्म विरोधी तत्वों ने नष्ट किया है। इस पुस्तक में ऐसे ह किया गया है, जिस पर किसी इतिहासकार का अध्यन नहीं जा सका था।
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Research (शोध)
Gramin Samajshastra Avdharnaen Avm Siddhant ( ग्रामीण समाजशास्त्र अवधरनाएं एवम सिद्धांत )
Research (शोध)Gramin Samajshastra Avdharnaen Avm Siddhant ( ग्रामीण समाजशास्त्र अवधरनाएं एवम सिद्धांत )
विभिन्न ग्रामीण सामाजिक समस्याओं तथा सामाजिक परिवर्तन, ग्रामीण विकास जैसे चर्चित विषयों पर समाज वैज्ञानिकों के गुढ़ विचारों को व्यवस्थित ढंग से हिन्दी में प्रस्तुत करने का प्रयास काफी कम हुआ है । वर्त्तमान पुस्तक इस कमी को कुछ हद तक पूरा करती है । नाना प्रकार के गाँव के जटिल विचारों को यहाँ इतने सरस और सहज ढंग से रखने की कोशिश की गई है कि ग्रामीण समाजशास्त्र एवं ग्रामीण विकास के स्नात्तक एवं स्नात्तकोत्तर के विभिन्न स्तरों के पाठकों को यह पुस्तक समान रूप से बोधगम्य हो।
पिछले पांच दशकों में भारतीय ग्राम्य वन के विविध पक्ष के छা वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय अध्ययन हुआ है। हम लोगों ने इन अध्ययनों के महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों को शामिल करने का प्रयास किया है। इसके अलावा जहाँ सूचनाओं की जरूरत पड़ी है, वहाँ 2001 तक उपलब्ध आंकड़ों का प्रयोग किया गया है ।
प्रस्तुत पुस्तक में उन सभी विषयों का समावेश किया गया है जो कि विभिन्न विश्वविद्यालयों के बी० ए०, एम० ए० ग्रामीण समाजशास्त्र के पाठ्यक्रम में निर्धारित हैं । यथा-सम्भव पारिभाषिक शब्दों के चयन में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्वीकृत हिन्दी शब्दावलों का प्रयोग किया गया है। जहाँ गये पर्याय गढ़ने पड़े हैं, वहाँ कोशिश यहाँ की गई है कि वे अर्थ पूर्ण होने के साथ-साथ सरल भी हो ।
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Ishopanishad ( ईशोपनिषद )
प्रस्तुत पुस्तक ईशोपनिषद् में कर्म और ज्ञान का समाहार किया गया है। ईशोपनिषद् कर्ममय जीवन का ज्ञानमय जीवन के साथ सामंजस्य स्थापित करती है। प्रकृति-पुरुष, योग-त्याग, कर्म-निष्कर्म, व्यक्ति समाज, अविद्या विद्या, भौतिक-अध्यात्म, कर्म ज्ञान, जन्म-मृत्यु, उत्पत्ति-विनाश, सगुण ब्रह्म-निर्गुण ब्रह्म, इन सबका सातिशय सुष्ठु इस लघुकाय उपनिषद् के शांति पाठ सहित अठारह मंत्रों में उपन्यस्त है।
इस पुस्तक के अवगाहन मात्र से मानव जाति घृणा-द्वेष, आतंक, कुत्सा और संकीर्णत से मुक्त होकर जीवन-यात्रा को स्वर्गापय बना सकेगा। संसार में तांडव करता आतंक ज्ञान के नर्तन में विहंस उठेगा।
उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता-ये वेदान्त दर्शन के तीन प्रस्थान हैं। इन्हें प्रस्थान-त्रयी कहते हैं। इनमें उपनिषद् श्रवणात्मक, ब्रह्मसूत्र मननात्मक और गीता निदिध्यासनात्मक है। सभी सम्प्रदायों-अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैत और शिवाद्वैतादि की आधारभूता प्रस्थानत्रयी हैं । इस प्रस्थान-त्रयी के आधार पर ही सभी सम्प्रदायाचार्यों ने अपने-अपने विचारानुसार विवेचनात्मक व्याख्या कर के परम सत्य का अन्वेषण किया है ।
उपनिषदों का प्रादुर्भाव वेदों के अत्युच्च शीर्षस्थानीय भागों से हुआ है, जिन्हें प्रायः वेदान्त, ब्रह्मविद्या अथवा आम्नायमस्तक कहते हैं। वस्तुतः उपनिषद् ही ब्रह्मविद्या के आदि स्रोत हैं ।
वेदों की प्रत्येक शाखा से सद्ध एक-एक उपनिषद् है। वेद अनन्त हैं, अतः उनकी शाखाएँ भी अनन्त ही होगी। शाखाओं की अनन्तता के कारण उपनिषदों की भी अनन्तता ही सिद्ध होती है। वेदों की अनेक शाखाएँ इस समय विलुप्त हैं
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Kahan Hai Manzil (kavya) कहां है मंजिल (काव्य)
‘कहाँ है मंजिल’ : प्रकृति, मृत्यु, बीमारी अमोरी, गरीबी, भूख, भेद-भाव, विकास, खास, बेरोजगारी तथा दरारों के दर्द का गुलाम मानव-समाज के सम्मुख सोचने-विचारने के लिए समतामूलक मन के ढंग से उकेरता-उभारता काव्य है। मानव मन में समाते, मात्र तन की दिग्भ्रमित त्रासदी का दंश झेलता विश्व मानव-समाज; मृत्यु के कराल गाल में समाता जा रहा है, प्राकृतिक तथा कृत्रिम प्रकोपों का शिकार होता जा रहा है। दृश्य दूरी घटती जा रही है, अदृश्य दूरी बढ़ती जा रही है। एक और सीमित जन बहुत ज्यादा समृद्ध होते जा रहे हैं और दूसरी ओर भूखे नंगों, गरीबों दलितों, दमितों, आदिवासियों, स्त्रियों और रोजगारहीन लाचार गरीब जनों की बीमार भारी भीड़ में मानव की पहचान मानवता अकुला- अकुला कर मानव-मानव से कहती है. पूछती रहती है और प्रखर सवाल दागती रहती है, कि आखिर अब क्या है उसकी जिन्दगी की जमीनी सच्चाई और क्या है मंजिल ? ‘कहाँ है मंजिल ?
प्रजातंत्र के लक्ष्य स्वतंत्रता, समानता प्रातृत्व तथा संह, सौहार्द सर्वमानव-कल्याण की एप्त यदि सबको समान रूप से नहीं होती और चन्द चतुर जन ही ज्यादा समृद्ध और अधिक जन दलित, दमित, गरीब और भूखे पेट ही रह जाते हैं, तो फिर यह सोचने के लिए बाध्य ही हो जाना पड़ता है कि अब कही है मोनल’? और… क्या नयी नस्ल में और खुद में यह आप नहीं महसुंसते कि ऐसी रचनाओं की ही जरूरत आज विश्व मानव समाज को है।
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Research (शोध)
Maghi Lokgeeton Mein Muhavaro Aur Lokoktiyon Ka Samajshastra ( मगही लोकगीतों में मुहावरो और लोकोक्तियों का समाजशास्त्र )
Research (शोध)Maghi Lokgeeton Mein Muhavaro Aur Lokoktiyon Ka Samajshastra ( मगही लोकगीतों में मुहावरो और लोकोक्तियों का समाजशास्त्र )
भाषा और साहित्य में घनिष्ट सम्बन्ध है । भाषा बदलती है तो साहित्य के प्रतिमान स्वयंमेव बदल जाते हैं। साहित्य से ही भाषा को पहचान होती है। लोकगीत साहित्य की एक विद्या है और मुहावरें तथा लोकोक्तियाँ भाषा का एक अंग। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती । साहित्य के इस विद्या में मुहावरों और लोकोक्तियां का विशेष स्थान है। गाँव में खेत-खलिहानों में बाग-बगीचों में काम करने वाले लोग, भैंस चराते चरवाहे, गाँव की भोली-भाली महिलाएँ भी मस्ती के साथ विभिन्न प्रकार के गीतों को गाते और हर्षित होते हैं।
मगही लोकगीतों में मुहावरों और लोकोक्तियों का समाजशास्त्रीय अध्ययन से हमारा तात्पर्य साहित्य में अभिव्यक्त सामाजिक घटनाओं के सम्यक विश्लेषण से है। सामाजिक घटनाओं में प्रमुखतः उस समाज को संस्कृति, सभ्यता, भाषा, शिक्षा, कला, जाति, गोत्र, विवाह, परिवार, समूह, समिति, संस्था, प्रथा, धर्म-सम्प्रदाय, लोक विश्वास, दर्शन, राजनीति, अर्थनीति आदि की गणना की जाती है। इसी से सामाजिक मनुष्यों की आंतरिक बाह्य क्रियाएँ प्रकट होती है।
भारतीय लोक जीवन का समय चित्रण गीतों में उपलब्ध है। गीत हो सबसे सशक्त माध्यम है जिसमें प्रत्यक्ष रूप से किसी पटना एवं काल विशेष का चित्रण मिलता है।
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Research (शोध)
Mahatma Gandhi Ka Samajik Avm Arthik Darshan ( महात्मा गांधी के सामाजिक एवं आर्थिक दर्शन )
Research (शोध)Mahatma Gandhi Ka Samajik Avm Arthik Darshan ( महात्मा गांधी के सामाजिक एवं आर्थिक दर्शन )
भारत की आजादी के पाँच दशक से अधिक गुजर गए । इस बीच हमारी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए दस पंचवर्षीय योजनाएँ भी बीत गई है । 21वीं सदी की दहलीज पर खड़ा भारत आधुनिकीकरण एवं वैश्वीकरण के तीव्र दौर से गुजर रहा है। गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, बीमारी, दहेजप्रथा, जनसंख्या वृद्धि, पर्यावरण हास जैसी समस्याओं आक्रान्त हमारा प्यार- न्याय भारत देश बापू के रामराज्य के सपनों को साकार करने में विफल रहा है।
गाँधी का जीवन-दर्शन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी एवं व्यापक है। उनका उद्देश्य केवल राजनीतिक स्वतंत्रता दिलाना ही नहीं था, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, विषमता को मिटाकर सांस्कृतिक विकास भी करना था।
प्रस्तुत पुस्तक में वर्तमान परिवर्तित भारतीय परिवेश एवं संदर्भ में गाँधीजी के जीवन-दर्शन, सामाजिक, आर्थिक दर्शन को समझने, भारतीय ढाँचे में ढालने, राष्ट्रीय साँचे में संवारने की आवश्यकता के चतुर्दिक गुम्फित है । इस पुस्तक में संकल्पनात्मक पृष्ठभूमि, अध्ययन का महत्व, उद्देश्य, समस्या कथन, विषय वस्तु का चयन, पूर्व साहित्य का अनुशीलन, गाँधीजी के जीवन-दर्शन तथा वर्तमान संदर्भ में उसको प्रासंगिकता की चर्चा की गई है। गाँधी के समाज दर्शन आर्थिक दर्शन का वर्णन किया गया है।
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Research (शोध)
Mahatma Gandhi Ke Arthik Chintan Ke Paripreksh Mein Shiksha ( महात्मा गांधी के आर्थिक चिंतन के परिप्रेक्ष में शिक्षा )
Research (शोध)Mahatma Gandhi Ke Arthik Chintan Ke Paripreksh Mein Shiksha ( महात्मा गांधी के आर्थिक चिंतन के परिप्रेक्ष में शिक्षा )
महात्मा गाँधी के आर्थिक चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा में यह दर्शाने का प्रयत्न किया गया है कि गाँधीजी वस्तुतः एक सुयोग्य अर्थशास्त्री और व्यवहारिक शिक्षाशास्त्री थे जिन्होंने देश की मिट्टी में कौन सी अर्थव्यवस्था पनप सकती है तथा नव अंकुरित मानव शिशु किस शैक्षणिक पर्यावरण में अस्फुटित, पल्लवित, पुष्पित और प्रतिफलित हो सकती है, इस तथ्य को भलीभांति जानते थे ।
इस पुस्तक में क्रमश: महात्मा गाँधी : व्यक्तित्व निर्माण, पर्यावरण एवं परिस्थितियाँ, महात्मा गाँधी: जीवन-दर्शन और उनका आर्थिक चिन्तन, महात्मा गाँधी के आर्थिक चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा और उसके विभिन्न आयाम पर प्रकाश डाला गया है।
विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक महात्मा गाँधी के शिक्षा के आर्थिक चिन्तन के संबंध में रूची लेने वाले सुधी पाठकों एवं समाज के सभी वर्गों के पाठकों के लिए मील का पत्थर साबित होगा ।
अर्थशास्त्र एवं शिक्षाशास्त्र की समान रुचि की छात्रा होने के नाते वर्षों से मेरे मन में जिज्ञासा बनी हुई थी कि मैं भारत के ही नहीं, विश्व के महान् व्यक्ति महात्मा गाँधी के आर्थिक एवं शैक्षणिक चिन्तन के विभिन्न आयामों और भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसके आपसी सम्बन्धों तथा इसकी आधुनिक उपयोगिताओं एवं महत्वों की वैज्ञानिक विवेचना करूँ, परन्तु समयाभाव और पारिवारिक उलझणों के कारण इसे कार्य रूप देने में थोड़ी कठिनाइयाँ सामने आयीं, परन्तु मैंने हिम्मत न हारी और इस प्रकार के विशाल और गहन विषय पर शोध कार्य पूरा कर लिया। आधुनिक अर्थशास्त्र हमारी वर्तमान सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न तत्वों को बहुत गहराई से प्रभावित कर रहा है। वर्तमान समय में शिक्षा और अर्थ का संबंध भी गहराता जा रहा है। पाश्चात्य पूँजीवादी व्यवस्था में अर्थोपार्जन के जो तरीके हैं, ये भारतीय परिवेश के लिए अपने मूल स्वरूप में सर्वग्राह्य नहीं हैं। गाँधीजी ऐसी परिस्थितियों से वाकिफ थे, अतः उन्होंने अपने आर्थिक चिन्तन के आधार को व्यावहारिक बनाया और एक ऐसी शिक्षा, विशेषकर बुनियादी शिक्षा योजना की नीति तैयार की जिससे शिक्षार्थी ज्ञानार्जन के साथ-साथ अर्थोपार्जन भी कर सकें और साथ ही आत्मनिर्भर एवं स्वावलम्बी बनकर राष्ट्र की रीढ़ को मजबूत भी कर सकें।
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Research (शोध)
Naxal Aandolan (Ek Hakikat) नक्सल आंदोलन (एक हकीकत)
नक्सल आंदोलन (एक हकीकत) , वेद बेकार किताबों का समूह हैं। उन्हें पवित्र या अचूक कहने का कोई कारण नहीं है। ब्राह्मणों ने इसे पवित्रता और अचूकता के साथ केवल इसलिए आमंत्रित किया है क्योंकि पुरुष सूक्त कहे जाने वाले एक बाद के प्रक्षेप द्वारा। वेदों ने उन्हें पृथ्वी का स्वामी बना दिया है, किसी में यह पूछने का साहस नहीं है कि इन बेकार पुस्तकों में आदिवासियों के आह्वान के अलावा कुछ भी नहीं है कि वे शत्रुओं को नष्ट कर दें, उनकी संपत्ति लूट लें और इसे अपने लोलियों को दे दें। लेकिन अब वह समय आ गया है जब ब्राह्मणों द्वारा प्रचारित मूर्खतापूर्ण विचारों की पकड़ से हिंदू मन को मुक्त किया जाना चाहिए। इस मुक्ति के बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है। मैंने इस कार्य को अच्छी तरह से जानते हुए किया है कि इसमें क्या जोखिम शामिल है। मैं परिणामों से नहीं डरता।
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Maithili Folk Song Study Book, Research (शोध), मैथिली लोकगीत
Prachalit Maithili Lokgeetek Bhandar (Sankalan Avm Maulik Rachnakarika ( प्रचलित मैथिली लोकगीतक भंडार (संकलन एवं मौलिक रचनाकारिका)
Maithili Folk Song Study Book, Research (शोध), मैथिली लोकगीतPrachalit Maithili Lokgeetek Bhandar (Sankalan Avm Maulik Rachnakarika ( प्रचलित मैथिली लोकगीतक भंडार (संकलन एवं मौलिक रचनाकारिका)
Prachalit Maithili Lokgeetek Bhandar (Sankalan Avm Maulik Rachnakarika ( प्रचलित मैथिली लोकगीतक भंडार (संकलन एवं मौलिक रचनाकारिका)
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History of Ancestors ( पूर्वजों का इतिहास ), Research (शोध)
Purvaj (Tatv Ki Khoj, Atit Ki Jhalak, Aatmgyan) पूर्वज (तत्व की खोज, अतीत की झलक, आत्मज्ञान)
History of Ancestors ( पूर्वजों का इतिहास ), Research (शोध)Purvaj (Tatv Ki Khoj, Atit Ki Jhalak, Aatmgyan) पूर्वज (तत्व की खोज, अतीत की झलक, आत्मज्ञान)
यह धार्मिक ग्रंथ “पूर्वज कई सुप्रसिद्ध पुराने ग्रंथों के सार से पिरोया हुआ एक खूबसूरत माला है जो हमें सहस्रों वर्ष पूर्व के हमारे पूर्वजों के जीवन स्तर अध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक क्षमता, स्त्री साम्राज्य, अभिमान मर्यादा के लिए संघर्ष, अदृश्य चीजों पर मोक्ष के लिए अटूट विश्वास इत्यादि की जीवत झलक दिखाता है साथ ही साथ उनकी चारित्रिक दुर्बलताएं, यूत का दुष्प्रभाव वर्ण-व्यवस्था के अनुसार वैश्य एवं शूद्ध का लगातार शोषण नियोग-विधि जैसे पशु धर्म का पालन नरबलितीगंगा-प्रवाह का जैसी भी अवगत कराता है जिसने पूरे हिन्दू समुदाय को झकझोर कर रख दिया।
यह ग्रंथ माननीय रजनीकांत शास्त्री द्वारा लिखित ‘हिन्दू जाति का उत्थान और पतन’ के प्रमुख अंश एवं अन्य माननीय लेखकों द्वारा लिखित अन्यान्य ग्रंथों, जिनका विस्तृत नाम इस ग्रंथ के अंतिम पृष्ठ पर अंकित है. का सहयोग प्राप्त कर वैसे हिन्दू भाईयों के धूमिल आइने रूपी सोंच को आडम्बरमुक्त जीवन व्यतीत करने हेतु तथ्यात्मक दृष्टांत के साथ, विश्लेषण किया गया है। इतना ही नहीं यह पुस्तक मात्र सहयोगी लेखकों की भावना का श्रद्धापूर्वक सम्मान के साथ उजागर करने के ही ख्याल से लिखी गई है।
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Research (शोध)
Ramlakhan Singh Yadav Vyaktitva Avm Krititva (राम लखन सिंह यादव व्यक्तित्व एवं कृतित्व)
Research (शोध)Ramlakhan Singh Yadav Vyaktitva Avm Krititva (राम लखन सिंह यादव व्यक्तित्व एवं कृतित्व)
डॉ० रघुबर प्रसाद एक विद्वान लेखक हैं जिन्होंने स्वतंत्रता सेनानी रामलखन सिंह यादव के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रचनाशील जीवन और सम्पर्कों की सर्वथा अलग और मौलिक रूपरेखा प्रस्तुत की है, इसे पढ़ते हुए हमारी आँखों और विवेक के समानान्तर यादव जी सजीव हो उठते हैं । जनता की निचली कतारों के बहुसंख्यक दलित, पिछड़ा की जितनी पहचान श्री रामलखन सिंह यादव की रही है, सम्भवतः उतनी पहचान कराने में अन्य नेता चूक जाते हैं ।
श्री यादव जी किसी राजनीतिक दल के साथ जुड़कर भी सभी दलों से उपर और विरल- विमल थे। यही कारण है कि वे जनता के आदमी की तरह सर्वत्र दिखते रहते थे। हमारा मानना है कि यादव पर यह पुस्तक अलग-थलग और सर्वथा नयी है।
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने श्री रामलखन सिंह यादव के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है । भारतीय राजनीति में श्री यादव के योगदान को प्रभावकारी ढंग से इस पुस्तक में रेखांकित किया गया है । श्री यादव बिहार में विधायक और कैबिनेट मंत्री रहे, दोनों रूपों में इन्होंने गुणवतपूर्ण कृतर्य किये जिनसे बिहार के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास में महत्त्वपूर्ण सफलता मिली । केन्द्र में वे सांसद और कैबिनेट मंत्री रहे । मंत्री के रूप में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए जिनकी अमिट छाप आज भी बनी हुई है। दिल्ली रहते हुए भी उन्होंने पूरे भारत और बिहार के लिए अनेक जनहित के कार्य किये।
उपर्युक्त सभी विषयों पर डॉ० रघुवर प्रसाद ने विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की है. इस दृष्टि से इनका प्रयास सराहनीय है ।
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Research (शोध)
Swatantrata Sangram Mein Patra Patrikaon Ka Yogdaan ( स्वतंत्रता संग्राम में पत्र पत्रिकाओं का योगदान )
Research (शोध)Swatantrata Sangram Mein Patra Patrikaon Ka Yogdaan ( स्वतंत्रता संग्राम में पत्र पत्रिकाओं का योगदान )
प्रस्तुत पुस्तक ‘स्वतंत्रता संग्राम में पत्र-पत्रिकाओं का योगदान’ में देश की आजादी में जिन पत्र-पत्रिकाओं की मुख्य भूमिका रही उनका विवरण प्रस्तुत किया गया
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का यदि सही ढंग से आकलन किया जाय तो स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि तैयार करने में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका सर्वोपरि रही है । स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए राजनेताओं को जितना संघर्ष करना पड़ा, उससे तनिक भी कम संघर्ष पत्रों एवं पत्रकारों को नहीं करना पड़ा।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का यदि सही ढ़ंग से आकलन किया जाय तो स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि तैयार करने में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका सर्वोपरि रही है । स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए राजनेताओं को जितना संघर्ष करना पड़ा, उससे तनिक भी कम संघर्ष पत्रों एवं पत्रकारों को नहीं करना पड़ा ।
उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक, प्रकाशक एवं मुद्रक को न तो किसी का सम्बल था और न संरक्षण। संसाधनों का अभाव साथ ही अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य की न कोई संविधान सम्मत अवधारणा । यावजूद पत्रकारिता भवसाय नहीं मीशन के रूप में अपनाई गई । लक्ष्य सिर्फ एक था, देश को दासता की जंजीरों से मुक्त करना | लेखनी के माध्यम से जन जागरण का उत्कट उदघोष करना । ब्रिटिश नौकरशाही की जड़ मूल से उखाड़ फेंकन पुरस्कार का संकल्प कारावास भोगने और अतिरिक्त नृशंस यातनाएं सहने को तत्पर रहना
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Research (शोध)
Upnishat Kalin Shiksha (उपनिषतकालीन शिक्षा)
प्रस्तुत पुस्तक प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था के अध्ययन की श्रृंखला की एक कड़ी है। किन्तु इसमें नवीनता है। यहाँ विषय-वस्तु के प्रतिपादन के लिए विशेषत: उपनिषद् ग्रन्थों को हो आधार बनाया गया है। इस क्रम में वैसे उपनिषद् ग्रन्थों को भी ग्रहण किया गया है, जो प्राय: दुलर्भ हैं। वास्तव में गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था उपनिषदों में ही वर्णित है। यहाँ आध्यात्मिक एवं दार्शनिक ज्ञान की पराकाष्ठा है। इन समग्र विषयों की इस पुस्तक में स्थान दिया गया है। यह पुस्तक उस युगीन शिक्षा व्यवस्था को दी है साथ ही इस विज्ञान युग मे इस शिक्षा की उपादेयता को बतलाती है। यह शिक्षाध्ययन के समग्र विषयों का सुष्ठु एवं सम्यक् निवेश है।
प्रथम अध्याय में वैदिक साहित्य में प्राप्त शिक्षा विषयक उल्लेखों को अकित किया गया है। इसमें वेदो वेदेतर साहित्य एवं उपनिषदों में उपलब्ध होने वाली शिक्षा के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। यह अध्याय एक प्रकार से शोध प्रबन्ध की पृष्ठ भूमि का कार्य करता है।
प्रस्तुत पुस्तक में उपनिषत्कालीन शिक्षा के विविध पक्षों के अध्ययन के परिणाम को उपनिबद्ध किया गया है। शोध-प्रबन्ध नौ अध्यायों में विभक्त है।
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Development of archeology (पुरातत्व का विकासपुरातत्व का विकास), Research (शोध)
Uttar Bihar Mein Puratatv Ka Udhavab Avam Vikas (उत्तर बिहार में पुरातत्व का उद्भव एवं विकास)
Development of archeology (पुरातत्व का विकासपुरातत्व का विकास), Research (शोध)Uttar Bihar Mein Puratatv Ka Udhavab Avam Vikas (उत्तर बिहार में पुरातत्व का उद्भव एवं विकास)
उत्तर बिहार का इतिहास प्राचीनकाल से ही अति समृद्ध एवं गौरवमयी रही है। प्राचीन भारत में प्रथम गणतंत्र इसी प्रक्षेत्र के वैशाली में पल्लवित हुई थी तथा मौर्य सम्राट अशोक ने उत्तर बिहार कि महता को बरकरार रखते हुए तीन एकाश्मिक स्तम्भों को क्रमश: अराज, लौरिया, नन्दन गढ़ एवं रामपुरवा में धर्मोपदेश उत्तीण कर लगवाना भगवान बुद्ध एवं जैन तीर्थंकर महावीर के पवित्र चरणों द्वारा यह प्रक्षेत्र कई बार मर्यादित हुआ। ऐसे महत्त्वपूर्ण उत्तर बिहार में पुरातत्व के उद्भव एवं विकास जैसी जटिल विषय पर डॉ. रश्मि सिन्हा ने शोष कर इसे पुस्तक के रूप में शोधकर्ताओं एवं विद्यार्थियों के लिए अत्यंत ही सहन भाषा में प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक के द्वारा लेखिका ने उत्तर बिहार के महत्वपूर्ण पुरातात्विक धरोहरों की ओर शोधकर्ताओं का ध्यान आकृष्ट किया है। लेखिका द्वारा खोज की गई लगभग तीन सौ पुरातात्विक स्थलों का भौगोलिक एवं पुरातात्विक विवरण के साथ उल्लेख किया गया जिनमें किशनगंज जिला के लगभग बीस ऐसे ताकि स्थलों का विवरण अंकित है जो अभी थे। यह लेखिका को सबसे महत्वपूर्ण उपलब्ध है।
इस पुस्तक में डॉ रश्मि सिन्हा ने उन पुरातत्वविदों का जीवनवृत प्रस्तुत किया है जिन्होंने उत्तर बिहार में मुख्य रूप से कार्य किया है। यह एक नवीन प्रयास है। वास्तव में जीवनपर्यंत पुरातत्त्वविद् प्राचीन सभ्यताओं एवम् संस्कृतियों की रूपरेखा तैयार करते रहते हैं, अपने पांडित्य एवम् कार्यक्षमता के बारे में कुछ नहीं लिख पाते हैं। लेखिका ने बहुत मेहनत करके अनेक पुरातत्वविदों के जीवनवृत एवम् कार्यों को सकारात्मक शैली में लिखा है। प्रस्तुत पुस्तक का यह विशिष्ट अध्याय शोधकर्ताओं तथा विद्यार्थियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण सावित होगा।
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Research (शोध)
अंगरेजी राज में संथालों के संघर्ष का इतिहास (Angreji Raj Mein Santhalon Ke Sangharsh Ka Itihaas)
Research (शोध)अंगरेजी राज में संथालों के संघर्ष का इतिहास (Angreji Raj Mein Santhalon Ke Sangharsh Ka Itihaas)
अंगरेजी राज में बिहार संथालों के संघर्ष का इतिहास हिन्दी भाषा में प्रथम प्रकाशन है। निष्कर्ष और ग्रंथसूची के अतिरिक्त छह अध्यायों में विभाजित यह ग्रंथ विचारधारा एवं व्याख्या की दृष्टि से क्रांतिकारी प्रस्तुति है। इसकी खासियत यह है कि इसके लेखक स्वयं अपने जीवन-संघर्ष के अंतर्गत संथालों की सामाजिक और आर्थिक त्रासदियों के गवाह रहे हैं। भलेही आज संथालों की बस्तियों का विभाजन झारखण्ड और बिहार के राज्यों के बँटवारा के साथ दोनों क्षेत्रों में सम्पन्न हो गया, फिर भी उनकी मानसिकता और अतीत की विरासतों में समानता है और उनके शोषकों और उपद्रवकारियों (दिक्कुओं) के समानान्तर अस्तित्व जीवन्त हैं। लेखक ने गहराई के साथ संथालों के इतिहास-सरोवर की छानविन की है, उनके सामाजिक एवं आर्थिक अवस्थाओं का समालोचनात्मक विश्लेषण किया है। संथालों की भू-राजस्व एवं काश्तकारी व्यवस्था बिहार के किसान आन्दोलन के इतिहास में सर्वाधिक यंत्रणामुलक संघर्ष को दर्शाता है जिसकी ओर सुर्खियों में आनेवाले किसान आंदोलन के नेताओं का रूझान संभवतः अपेक्षाकृत कम रहा है। इसपर सवालों का पहाड़ खड़ा किया जा सकता है। प्रशसनिक व्यवस्था के स्तर पर जो भी प्रयास हुए आज इस विषय नये ढंग से सोचने, समझने और फौलादी कलम को उठाने को प्रेरित करते हैं लगता है कि वास्तविक समर अभी भी शेष है। यह सोध्यथ अवेक भावा शोधकार्यों की ओर अग्रसर होने के लिए चुनौतीपूर्ण आमंत्रण देता है।
आदिम जनजाति के होते हुए भी पहाड़िया और संथाल समुदाय के लोगों के रहन-सहन खान-पान बात व्यवहार में बहुत भिन्नता थी। पहाड़ियों को पर्वत प्रिय था और संथालों को पर्वत की तराई या तलहटी। संथाल जंगल काटकर खेती और अपने बासस्थान के लिए जगह निकालते थे और वहाँ से ‘पहाड़िया’ को खदेड़कर पर्वत-शिखर की ओर ढकेल देते थे जिस प्रकार पहाड़िया संथालों के शोषण से आतंकित होकर पर्वतशिखरों पर निवास करने में भी अशान्ति का अनुभव करते थे उसी प्रकार संथाल बंगाली जमीदारों और भारी ब्याज लेकर कर्ज देने वाले दिक्कू महाजनों के शोषण से भयाक्रान्त थे। व्याज के बदले स्वयं या परिवार के सदस्य को चे आजोवन बन्धक बनाकर दिक्कुओं का दास बनाकर रखते थे। कर्जदाता महाजन कर्ज का गलत हिसाब रखकर निरक्षर संथालों को सदा छला करते थे। कर्ज के व्याज में ही उनकी फसल चली जाती थी, मवेशी भगा लिये जाते थे पर व्याज की राशि सुरसा की भांति बढ़ती ही जाती थी।
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