Satire Books
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Ab Tak Chhappan
अब तक छप्पन –
यशवंत व्यास को नयी पीढ़ी के रचनाकारों में भाषा और शिल्प के स्तर पर अद्भुत ताज़गी के लिए जाना जाता है। ‘अब तक छप्पन’ में उनकी चुनी हुई छप्पन व्यंग्य रचनाएँ हैं। रचनाओं की विषयवस्तु और मुहावरे दोनों ही सत्तर के दशक के बाद बनते बिगड़ते संसार की प्रतिध्वनि हैं। सामाजिक सरोकारों, बाज़ारवादी प्रभावों तथा मीडिया के ज़रिये सूचना क्रान्ति के नतीजों पर मार्मिक टिप्पणी इनमें देखी जा सकती है।
हास्य की हा-हाकारी परम्परा से उलट, यशवंत के व्यंग्य में तीव्र वेदना का स्वर है। उनकी शैली में पारम्परिक हास्य-बोध की शाब्दिक बाज़ीगरी न होकर रूपकों का गहन संसार पाठकों को व्यंग्य के नये अनुभव प्रदान करता है। उनके मुहावरे अपने समय के द्वारा निर्मित हैं, प्रयोगशीलता जिन्हें कई बार नये समय की सूक्तियों में बदल देती है।
प्रतिबद्धता यशवंत की रचनाओं की बड़ी विशेषता है। धिक्कार की राजनीति में प्रवीण चरित्रों के वैचारिक जगत की पड़ताल इसके माध्यम से की जा सकती है। सहजता और चमत्कारिकता इन रचनाओं का अन्तर्निहित गुण है, किन्तु यह भावभूमि के सार्थक विस्तार में प्रयुक्त होता चला जाता है। विषय नये हैं, शैली उबाऊपन और रूढ़ियों से दूर है और पठनीयता इनका अनिवार्य तत्त्व है।
‘अब तक छप्पन’ के व्यंग्य दिलचस्प अन्दाज़ तथा विश्वसनीय प्रहार क्षमता से आपको उस जगह खड़ा करते हैं जहाँ से आप सच को सच की तरह ही देख सकें।SKU: VPG8126312327 -
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Aur Ant Mein
..परसाई जी की रचनायें राजनीति, साहित्य, भ्रष्टाचार, आजादी के बाद का ढोंग, आज के जीवन का अन्तर्विरोध, पाखण्ड और विसंगतियों को हमारे सामने इस तरह खोलती हैं जैसे कोई सर्जन चाकू से शरीर काट-काट कर गले अंग आपके सामने प्रस्तुत करता है। उनका व्यंग्य मात्र हँसाता नहीं है, वरन् तिलमिलाता है और सोचने को बरबस बाध्य कर देता है। कबीर जैसी उनकी अवधूत और निःसंग शैली में उनका जीवन चिन्तन मुखर हुआ है। उनके जैसा मानवीय संवेदना में डूबा हुआ कलाकार रोज़ पैदा नहीं होता। …आज़ादी के पहले का हिन्दुस्तान जानने के लिए जैसे सिर्फ़ प्रेमचन्द पढ़ना ही काफी है, उसी तरह आज़ादी के बाद भारत के पूरे दस्तावेज़ परसाई की रचनाओं में सुरक्षित हैं। चश्मा लगाकर ‘रामचन्द्रिका’ पढ़ाने वाले पेशेवर हिन्दी के ठेकेदारों के बावजूद, परसाई का स्थान हिन्दी में हमेशा-हमेशा के लिए सुरक्षित है। -रवीन्द्रनाथ त्यागी
SKU: VPG9388684545 -
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Aur Ant Mein
..परसाई जी की रचनायें राजनीति, साहित्य, भ्रष्टाचार, आजादी के बाद का ढोंग, आज के जीवन का अन्तर्विरोध, पाखण्ड और विसंगतियों को हमारे सामने इस तरह खोलती हैं जैसे कोई सर्जन चाकू से शरीर काट-काट कर गले अंग आपके सामने प्रस्तुत करता है। उनका व्यंग्य मात्र हँसाता नहीं है, वरन् तिलमिलाता है और सोचने को बरबस बाध्य कर देता है। कबीर जैसी उनकी अवधूत और निःसंग शैली में उनका जीवन चिन्तन मुखर हुआ है। उनके जैसा मानवीय संवेदना में डूबा हुआ कलाकार रोज़ पैदा नहीं होता। …आज़ादी के पहले का हिन्दुस्तान जानने के लिए जैसे सिर्फ़ प्रेमचन्द पढ़ना ही काफी है, उसी तरह आज़ादी के बाद भारत के पूरे दस्तावेज़ परसाई की रचनाओं में सुरक्षित हैं। चश्मा लगाकर ‘रामचन्द्रिका’ पढ़ाने वाले पेशेवर हिन्दी के ठेकेदारों के बावजूद, परसाई का स्थान हिन्दी में हमेशा-हमेशा के लिए सुरक्षित है। -रवीन्द्रनाथ त्यागी
SKU: VPG9388684552 -
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Bus Ka Ticket
बस का टिकट –
मराठी हास्य-साहित्य के प्रवर्तक कोल्हटकर के साहित्यिक कर्म और मर्म को ग्रहण करते हुए गंगाधर गाडगिल ने उस परम्परा का अनुकरण मात्र नहीं किया है। गाडगिल जी की पसन्दगी, अभिरुचि और मूल्य-प्रवृत्तियों के अवलोकन के बाद स्वीकार किया गया है कि उनकी निर्मिति मात्र व्यंग्यात्मक उक्ति वैचित्र्य के सहारे नहीं हुई है।
गंगाधर गाडगिल की रचनाएँ एक साथ कई बातों का अहसास दिलाती हैं। उनकी रचनाएँ जीवन के विविध पहलुओं से सम्बद्ध होने का अनुभव भी कराती हैं। दरअसल विशिष्ट सामाजिक जीवन की सम्बद्धता और बौद्धिक विशिष्टता की सीमाओं को न माननेवाली गाडगिल जी की हास्य-प्रवृत्तियों ने घेरों को कभी नहीं माना। किर्लोस्कर-देवल की अभिजात हास्य-साहित्य की परम्परा के कायल गाडगिल ने हमेशा अभिजात, मूल्यपरक और स्वाभाविक हास्य को तरजीह दी और लक्ष्मीबाई तिलक के हास्य को अपना आदर्श माना है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि गाडगिल अभिजात हास्य-परम्परा की लकीर का अनुसरण करते हुए उसकी अगली कड़ी-भर रह गये। परम्परा की कतिपय प्रवृत्तियों और समानताओं के बावजूद गाडगिल जी के हास्य-व्यंग्य की अपनी अलग अस्मिता रही है। परम्परा को नये आयाम दिलाने के साथ गाडगिल उन नवीन प्रवृत्तियों को भी गढ़ते हैं जिनका संकेत तक परम्परा में नहीं है।
प्रस्तुत है एक समर्थ हास्य-व्यंग्यकार की महत्त्वपूर्ण कृति का नया संस्करण।SKU: VPG8126340019 -
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Chaupal Ke Makhoul
चौपाल के मखौल –
‘चौपाल के मखौल’ का नया संस्करण आपके हाथ में है। मैंने इसे संवर्धित करने का भी प्रयास किया है। इस पुस्तक का उद्देश्य आपके तनावभरे जीवन में हँसी की हिलोरें पैदा करना है। हँसी-ठट्ठों के बिना जीवन है भी क्या? महज एक गणित, जहाँ सारा दिन घटा-जोड़ होता रहता है, या फिर एक समाजशास्त्र, जहाँ सारा दिन मन समाज की अच्छी-बुरी रस्मों में ही उलझा रहता है। दरअसल यह चौपाल एक किताब न होकर आपके पास रची-बसी जीवन की चौपाल है जहाँ मसखरियों और चुहलबाजियों में कहीं प्यार और सहकार व्यक्त हुआ है तो कहीं खट्टे-मीठे ताने-उलाहने। चौपाल स्थाई दस्तक है आपकी चौखट पर। जब आप चाहें मुलाक़ात होगी आपसे और इस मुलाक़ात में गजभर लम्बे ठहाके लगेंगे। ठहाके यानी उन्मुक्त हँसी। मुस्कराना अपनी जगह ठीक है पर ठहाकों में एक संगीत है, एक लय है और एक रिश्ता भी।SKU: VPG8181434326 -
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Ek Adhoori Prem Kahani Ka Dukkhant
एक अधूरी प्रेम कहानी का दुःखान्त –
व्यंग्य का मूलतः विसंगति और विडम्बना के गहरे बोध से जन्म होता है। व्यंग्यकार अपने आसपास की घटनाओं पर पैनी निगाह रखता है और उनका सारांश मन में संचित करता रहता है। जब किसी घटना का सूत्र किसी व्यापक जीवनोद्देश्य से जुड़ता है तब रचना में व्यंग्य का प्रस्थान बनता है।
‘एक अधूरी प्रेम कहानी का दुःखान्त’ में कैलाश मंडलेकर के व्यंग्य-आलेख किसी-न-किसी परिवेशगत विचित्रता को व्यक्त करते हैं। उनके व्यंग्य ‘हिन्दी व्यंग्य परम्परा’ से लाभ उठाते हुए अपनी ख़ासियत विकसित करते हैं। कुछ विषय इस क्षेत्र में सदाबहार माने जाते हैं जैसे—साहित्य, राजनीति, ससुराल, प्रेम आदि। इन सदाबहार विषयों पर लिखते हुए कैलाश मंडलेकर अपने अनुभवों का छौंक भी लगाते चलते हैं। उदाहरणार्थ, ‘वरिष्ठ साहित्यकार : एक लघु शोध’ में उनके ये वाक्य : ‘वरिष्ठ साहित्यकार का एकान्त बहुत भयावह होता है। बात-बात पर उपदेश देने वाली आदत के कारण लोग प्रायः उससे बिदकते हैं। वरिष्ठ साहित्यकार अमूमन अकेला ही रहता है तथा घरेलू क़िस्म के अकेलेपन को पत्नी से लड़ते हुए काटता है।’
प्रस्तुत व्यंग्य-संग्रह अपनी चुटीली भाषा और आत्मीय शैली के कारण पाठकों की सहृदयता प्राप्त करेगा, ऐसा विश्वास है।SKU: VPG8126320615 -
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Gantantra Ka Ganit
गणतंत्र का गणित –
अक्सर यह देखने में आया है कि सामाजिक विसंगतियों पर चोट करने के लिए उपदेश या भाषण की तुलना में व्यंग्य एक अधिक कारगर विधा है। हल्की-हल्की हँसी और तीख़ेपन के साथ कही गयी बातें भारी-भारी नसीहतों की तुलना में लोगों के दिलों में कहीं ज़्यादा घर करती हैं। इसीलिए हिन्दी में व्यंग्य की एक सुदीर्घ परम्परा है। बालमुकुन्द गुप्त और बालकृष्ण भट्ट की तो बात ही क्या, भारतेन्दु ही से व्यंग्य की यह धारा हिन्दी में बहने लगती है और हरिशंकर परसाई और शरद जोशी तक पहुँचते-पहुँचते एक स्थापित विधा का रूप ले लेती है। आज ऐसा कोई समाचार पत्र या साप्ताहिक पत्रिका नहीं होगी जिसमें व्यंग्य का अनिवार्य स्थान न हों।
नरेन्द्र कोहली एक जाने-माने कथाकार और उपन्यासकार ही नहीं, एक चर्चित व्यंग्यकार भी हैं। अपनी कहानियों और उपन्यासों को लिखने के साथ-साथ वे बीच में व्यंग्य लेखों और टिप्पणियों पर भी हाथ आज़माते रहते हैं। सहज सरल और चुटीली भाषा-शैली और रोज़मर्रा के जीवन से उठाये गये प्रसंग-नरेन्द्र कोहली के व्यंग्य लेख हमारे आपके इर्द-गिर्द के जीवन से सम्बद्ध हैं। इसीलिए शायद इनकी पहुँच इतनी व्यापक है। विषय चाहे साम्प्रदायिकता हो या शादी या अवैध कब्ज़े या फिर अन्धविश्वास का – नरेन्द्र कोहली का व्यंग्य-भरा नश्तर समान रूप से पाखण्ड को उजागर करने के लिए अपनी चीर-फाड़ करता रहता है। अक्सर उन्होंने ‘रामलुभाया’ जैसा एक पात्र भी अपनी इन टिप्पणियों में कल्पित किया है। जिसके माध्यम से जो कुछ कहना होता है, वे बखूबी कह देते हैं।SKU: VPG8170555445 -
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Huye Mar Ke Hum Jo Ruswa
हुए मर के हम जो रुसवा –
कविता में भी व्यंग्य लिखे अवश्य गये, किन्तु कवि इस विधा की स्वतन्त्रता के विषय में इतने गम्भीर दिखाई नहीं पड़े, जितने कि गद्य-लेखक। व्यंग्य कवियों की महत्वाकांक्षा कवि बनने की ही रही, गद्य में लिखने वाले व्यंग्यकारों की, व्यंग्यकार बनने की।कुछ अतिरिक्त शास्त्रीय समीक्षक व्यंग्य को केवल एक ‘शब्दशक्ति’ के रूप में ही स्वीकार करते हैं। मुझे यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि हिन्दी साहित्य के रीतिकाल तक, व्यंग्य या तो एक शब्दशक्ति था, या अन्योक्ति, वक्रोक्ति अथवा समासोक्ति जैसा अलंकार। किन्तु समय और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ विधाओं का विकास भी होता है, और नयी विधाओं का निर्माण भी। हम व्यंग्य को आज के सन्दर्भ में देखें तो पायेंगे कि आज के व्यंग्य-उपन्यासों, व्यंग्य-निबन्धों, व्यंग्य-कथाओं तथा व्यंग्य-नाटकों में व्यंग्य के शब्दशक्ति अथवा अलंकार मात्र नहीं हैं। उसका विकास हो चुका है और वह शास्त्रकार से माँग करता है कि वह व्यंग्य-विधा के लक्षणों का निर्माण करे।
किसी विधा को एक ही भाषा के सन्दर्भ में देखना भी उचित नहीं है। सम्भव है कि यह कहा जा सके कि अमुक भाषा में व्यंग्य नहीं है। किन्तु संसार की किसी भाषा में व्यंग्य अथवा ‘सैटायर’ स्वतन्त्र विधा ही नहीं है, और वह स्वतन्त्र विधा हो ही नहीं सकता, ऐसा कहना मुझे उचित नहीं जँचता।SKU: VPG9350729014 -
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Iswar Se Bhentwarta
ईश्वर से भेंटवार्ता –
पहला संग्रह ‘देह धरे को दंड’ के बाद खगेन्द्र ठाकुर का यह दूसरा व्यंग्य-संग्रह है—’ईश्वर से भेंटवार्ता’। खगेन्द्र के व्यंग्य-लेखन का उद्देश्य जीवन और समाज के यथार्थ को उजागर कर विनोद शैली में पाठकों को गुदगुदाने का रहा है। इस संग्रह में भी उनकी अनुभव सिद्ध विषयवस्तु और लेखन की समन्वित कला देखी जा सकती है। निश्चित ही यहाँ लेखक का रुख आलोचनात्मक है। इन व्यंग्य-लेखों को पढ़ते हुए कभी हमें हजारीप्रसाद द्विवेदी याद आते हैं तो कभी हरिशंकर परसाई। खगेन्द्र के निबन्ध भी जब कभी क्लासिकल वस्तु को तो कभी सामाजिक वस्तु को लेकर स्वतः ही व्यंग्यात्मक शैली में ढल जाते हैं।
असल में खगेन्द्र जी के पास जीवन और समाज के अनुभवों का ऐसा समृद्ध और विविधतापूर्ण ख़ज़ाना है। कि उनके लेखन को किसी एक विधा में व्यक्त करना सम्भव नहीं होता। प्रस्तुत संग्रह ‘ईश्वर से भेंटवार्ता’ भी कुछ ऐसे ही शिल्प में ढला हुआ देखा जा सकता है। रोचकता से भरपूर एक पठनीय कृति।SKU: VPG9326351638