धार्मिकता का सम्प्रत्यय भगवद्गीता और ब्रैथवेट के परिप्रेक्ष्य में Dharmiktaa Ka Sampratyay (Bhagwatgeeta Aur Brathwaite Ke Pariprekshay Mein) BookHeBook Online Store
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धार्मिकता का सम्प्रत्यय भगवद्गीता और ब्रैथवेट के परिप्रेक्ष्य में Dharmiktaa Ka Sampratyay (Bhagwatgeeta Aur Brathwaite Ke Pariprekshay Mein)

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धर्म संस्कृत का एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है। मैक्समूलर की मान्यता है कि धर्म और रेलिजन सही रूप में एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द नहीं है। हिन्दी या संस्कृत में धर्म शब्द का प्रयोग बृहत्तर गुणवाचकता के साथ होता है।

समसामयिक संदर्भ में अपने देश के स्तर पर जितनी प्रमुखता धर्म ने ग्रहण कर ली उतनी जीवन के अन्य किसी कार्य-व्यापार में नहीं। धार्मिकता जितने कलेवरों में उभरकर आ रही है उसे देखकर ऐसा लगता है कि धर्म का उपयोग बैसाखी की तरह किया रहा । हर सोचने समझने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह और धार्मिकता को एक बार फिर से उचित परिप्रेक्ष्य प्रदान करे।

धर्म कब, क्यों और कैसे मानव की वैयक्तिक एवं सामूहिक आचार संहिता का त्वपूर्ण अंग बन गया यह बताना आज संभव नहीं दीखता। इतना अवश्य सत्य है कि धर्म मानव कार्य-व्यापार का एक अविछिन्न अंग आज से नहीं मानव इतिहास के हमारे इनके काल से ही है। ऐतिहासिक और भौगोलिक कारणों की पृष्ठभूमि में धर्म ने एक सी यात्रा तय की है और इस यात्रा के दौरान उसका स्वरूप परिवर्तन भी होता रहा है। इसके बावजूद एक प्रकार की निरन्तरता भी इसके साथ बनी रही है जिसके कारण विश्व के उन्नतम धर्मों में भी प्राचीन धर्मों के अवशेष स्पष्टतः परिलक्षित होते हैं। इस प्रकार धर्म को निरन्तरता के साथ परिवर्तन के आलोक में देखना ही उचित है।

इतना निर्विवाद है कि धार्मिक चेतना का अभ्युदय मनुष्य में सामाजिक चेतना के अभ्युदय से पूर्व ही हुआ है। धर्मों के स्वरूप पर दृष्टिपात करने से ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के निजी जीवन से सामाजिक जीवन की अपेक्षा कहाँ अधिक रहा है। धर्मो का सामाजिक स्वरूप बाद के वर्षों में विभिन्न उद्देश्यों द्वारा संगठित दलों के उपलों के द्वारा महत्वपूर्ण बनाया गया है। यों मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसकी वैयक्तिकता उसको सामाजिकता में अन्तलीन हो जाती है। यह अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को अपने समाज के साथ बाँटता रहा है और संभवतः यहीं से धर्मों को सामाजिकता का दुर्भाव हुआ होगा।

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इस पुस्तक के माध्यम से हमने यही बताने को कोशिश की है कि जिस अर्थ में धर्म शब्द हिन्दू दर्शन में प्रयुक्त होता है उस अर्थ में ईश्वरवाद सिर्फ पृष्ठभूमि में रहता है। ईश्वर की पूजा-अर्चना काउन महत्वपूर्ण अंग नहीं है जितना व्यक्ति द्वारा अपनी आस्था के अनुरूप अपने प्रतिबद्धता के द्वारा करना। इस प्रकार मे जो धार्मिकता की बाधा के विचार से अछूत है। संपूर्ण में भी किसी का विधान श्री कृष्ण नहीं है। खेत में जिस पर काम किया है।

धार्मिक व्यक्ति के लिए ईश्वर की धरण एक अनिवार्यता है और इसकी अभिव्यक्ति उसके आचरण से होती है। जन हम कहते हैं कि ‘ईश्वर सबका पिता हैं तो ईश्वरीय आस्था की सबसे पहली अभिव्यक्ति सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति उसके अपनत्व की भावना में निहित होगी और यह अभिव्यक्ति ही धर्म है। धर्म मात्र प्रत्यय नहीं है; वह क्रियात्मकता भी है। इसलिए ब्रेथवेट जब कहता है कि नैतिक निर्णय की पौठे धार्मिक कथन भी मुख्यतः वक्ता की जीवन-पद्धति अपना आचरण नीति से सम्बन्धित प्रतिबद्धता के विषय में उसकी घोषणाएँ है। तो यह तर्कसंगत लगता है।

भगवद्गीता में मुख्य रूप से ईश्वरवाद का प्रतिपादन विश्वरूप का प्रदर्शन, अवतार को घोषणा तथा मुख्यतः कमी का महत्व बताया है। धर्मसम्मूद, अर्जुन को कृष्ण उपर्युक्त विषय पर उपदेश देते हुए बताते हैं कि धर्म ज्ञार स्वधर्म का पतन है तो गीता की धार्मिकता अन्ततः स्वधर्म पालन में केन्द्रित हो जाती है और ईश्वर विषयक विचार स्वयमेव पृष्ठभूमि में चले जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म का मूल ईश्वर आस्था में नहीं बल्कि न्यायचित कर्म में है।

Binding

Hard Cover ( कठोर आवरण )

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ISBN

8189880217

Language

Hindi ( हिंदी )

Pages

140

Publisher

Janaki Prakashan ( जानकी प्रकाशन )

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