इस पुस्तक के माध्यम से हमने यही बताने को कोशिश की है कि जिस अर्थ में धर्म शब्द हिन्दू दर्शन में प्रयुक्त होता है उस अर्थ में ईश्वरवाद सिर्फ पृष्ठभूमि में रहता है। ईश्वर की पूजा-अर्चना काउन महत्वपूर्ण अंग नहीं है जितना व्यक्ति द्वारा अपनी आस्था के अनुरूप अपने प्रतिबद्धता के द्वारा करना। इस प्रकार मे जो धार्मिकता की बाधा के विचार से अछूत है। संपूर्ण में भी किसी का विधान श्री कृष्ण नहीं है। खेत में जिस पर काम किया है।
धार्मिक व्यक्ति के लिए ईश्वर की धरण एक अनिवार्यता है और इसकी अभिव्यक्ति उसके आचरण से होती है। जन हम कहते हैं कि ‘ईश्वर सबका पिता हैं तो ईश्वरीय आस्था की सबसे पहली अभिव्यक्ति सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति उसके अपनत्व की भावना में निहित होगी और यह अभिव्यक्ति ही धर्म है। धर्म मात्र प्रत्यय नहीं है; वह क्रियात्मकता भी है। इसलिए ब्रेथवेट जब कहता है कि नैतिक निर्णय की पौठे धार्मिक कथन भी मुख्यतः वक्ता की जीवन-पद्धति अपना आचरण नीति से सम्बन्धित प्रतिबद्धता के विषय में उसकी घोषणाएँ है। तो यह तर्कसंगत लगता है।
भगवद्गीता में मुख्य रूप से ईश्वरवाद का प्रतिपादन विश्वरूप का प्रदर्शन, अवतार को घोषणा तथा मुख्यतः कमी का महत्व बताया है। धर्मसम्मूद, अर्जुन को कृष्ण उपर्युक्त विषय पर उपदेश देते हुए बताते हैं कि धर्म ज्ञार स्वधर्म का पतन है तो गीता की धार्मिकता अन्ततः स्वधर्म पालन में केन्द्रित हो जाती है और ईश्वर विषयक विचार स्वयमेव पृष्ठभूमि में चले जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म का मूल ईश्वर आस्था में नहीं बल्कि न्यायचित कर्म में है।
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