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nan
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Jalawatan
0 out of 5(0)जलावतन –
लोलुप सर्वसत्तात्मक राजनीति में हिंसक रूप ने पिछले दिनों जो विनाश-लीला की है, उसका एक रूप विस्थापन है। समाचार और जानकारी के तौर पर यह मीडिया में पर्याप्त आया है और आ रहा है। विस्थापन की दारुणता फ़िलिस्तानी कवियों में मार्मिक रूप में दिखलायी पड़ती है जो स्वाभाविक है। लीलाधर मंडलोई की यह रचना हिन्दी में इस विषय पर प्रकाशित पहली है। मुझे इन कविताओं को पढ़कर यह लगा कि कवि ने विस्थापन के दृश्य प्रस्तुत किये हैं, वे काल्पनिक नहीं देखे हुए हैं। कविता की कोई विषयवस्तु है लेकिन कविता विषय नहीं ‘वस्तु’ को दिखाती और उससे पाठक को प्रभावित करती है। इन कविताओं में विवरण कम है। दृश्यों में टूटन और बिखराव हैं, जो स्थापित होने की स्थिति का निषेध करते हुए विस्थापन का शिल्प बनती हैं। भावी रूप और वस्तु का एकात्म बनती हैं। मंडलोई स्थिति को संकलित नहीं करते वे उसे साक्षात् करते हैं
बचे हुओं के पास कुछ न था
एक तोता रह सकता था कहीं और
गाय भी जा सकती थी कहीं जंगल में
बिल्ली और कुत्ता तो कम से कम रह ही सकते थे
इस उजड़े दयार में
जब कोई नहीं आ रहा था साथ
तोता, गाय और बिल्ली, कुत्ता
चले आये पीछे इस तम्बू में
तोता, गाय, बिल्ली और कुत्ता का विस्थापित का साथ न छोड़ना, सहानुभूति नहीं (सहानुभूति, वस्तु (व्यथा) को शब्द में बदल कर छुट्टी पा लेती है) वे पशु-पक्षी विस्थापन के साथ विस्थापित हो गये हैं। स्वयं वस्तु बन गये हैं। व्यथा संवेदना के शीर्षक या विवरण नहीं। यह कवि के शिल्प की सिद्धि है।
शिल्प की सिद्धि यह कि यह संवेदना तक पहुँच ख़ुद लुप्त हो जाती है।
देश-विहीन जाति, नाम विहीन तो नहीं होती। लेकिन विस्थापित का नाम उसके जातीय अपमान का पर्याय बन जाता है। युद्ध और विस्थापन की भयावहता का अनुभव अस्तित्व को नष्ट कर देता है। नष्ट हो जाने से बदतर है अस्मिता रहित हो कर ऐसा जीवन जीना जो अपमान का स्रोत है। ऐसे बच्चे की कल्पना करें जो अपने मारे गये माँ-बाप का चेहरा भी नहीं याद कर सकता। और जो बच्चा कहता है—
“मुझे नफ़रत के साथ वे फ़िलिस्तीनी पुकारते हैं।”
मंडलोई ने इस लगभग वैश्विक भयावहता को कविता के शब्दों में खींच लिया है। ऐसे खींच लिया है जैसे वनस्पतियों और फल-फूलों का अर्क (रस) आदिवासी अपने देशज संसाधनों से उतार लेते हैं। ये कविताएँ करुणा का रस नहीं करुणा का कालकूट सा प्रभाव पैदा करती हैं।
जलावतन की कविताओं को एक-साथ पढ़ें तो इसमें एक गाथा उभरती है। वे काल-घटना की क्रमबद्धता में ये कथा भी कहती है यानी उनमें प्रबन्धात्मकता भी है। वस्तुतः विस्थापन की गाथा प्रबन्धात्मकता—किसी महाभारत की कथा या बृहत् उपन्यास की माँग करती है।
मंडलोई की सर्जनात्मक प्रामाणिकता का लक्षण यह है कि उनके विस्थापन दुख में उनका अपना विस्थापन अनुभव भी घुल-मिल गया है जो उनकी इन कविताओं की काव्य वस्तु को आत्मसात् कर लेने का प्रमाण है। इस संकलन में मटमैले ताबीज़ वाले फ़िलिस्तानी के साथ ‘गोबर लिपा आँगन’ और ‘माँ की नर्मदा-किनार’ वाली साड़ी की सिर पर पल्ले की याद भी नत्थी है।
जलावतन हिन्दी की काव्य वस्तु में नया जोड़ने वाली किताब है। —विश्वनाथ त्रिपाठीSKU: VPG9387919037₹150.00₹200.00 -
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Kanchanjangha Samay
0 out of 5(0)कंचनजंघा समय –
समकालीन कविता के परिदृश्य में, जो क्षरण की ज़द में है—वो है प्रकृति और पर्यावरण। प्रकृति प्रेम की कविताओं का संसार भी लगातार सिकुड़ रहा है। लेखकों में यायावरी का स्वभाव भी पिछले दशकों में बनिस्पत कम हुआ है। एक ऐसे दौर में कंचनजंघा की मौलिक छवियाँ इस संग्रह को मूल्यवान बनाती हैं क्योंकि इसमें भूमण्डलीकरण के बाद हुए नकारात्मक परिवर्तनों में प्रकृति के विनाश की गहरी अन्तर्ध्वनि समाविष्ट है।
‘कंचनजंघा समय’ में अनूठे बिम्बों की आमद है जैसे धूप कुरकुरी, सर्दी में ठिठुरता पत्थर, झुरमुट से झरती स्वर रोशनी, गूँज से निर्मित अणु-अणु, रोटी की बीन, पेड़ के सुनहले टेसू, परती पराट, पतझड़ की बिरसता, छन्द का चाँद, रंग हरा नहीं भूरा आदि। इस संग्रह में आकर्षित करनेवाली नवीन शब्द राशि भी है।
कवि की सीनिक दृष्टि की तरलता, विचार की ऊष्मा और सृष्टि के प्रति गहरा राग दृष्टव्य हैं। ‘कंचनजंघा’ पर आगत ख़तरों की चेतावनी इस कृति को प्रासंगिक बनाती है। उम्मीद है यह विरल प्रकृति प्रतिबद्धता पाठकों को पर्यावरण दृष्टि से सम्पन्न करने में छोटी ही सही, एक भूमिका का काम करेगी।SKU: VPG9326355575₹150.00₹200.00 -
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Hathiyar Ki Tarah
0 out of 5(0)हथियार की तरह –
हिन्दी के सुपरिचित कवि श्री नरेश अग्रवाल का यह नवीनतम कविता संग्रह कवि के नये सृजनात्मक सोपान का साक्ष्य है। नरेशजी यहाँ आते-आते अपना निजी स्वर एवं मुहावरा अर्जित कर लेते हैं और समकालीन कविता में एक विशिष्ट पहचान भी मुद्रित करते हैं। नरेशजी की कविता का पाट विस्तृत और उर्वर हुआ है। साथ ही, आभ्यन्तर का उत्खनन भी गहराई तक सम्भव हुआ है जो किसी भी आत्मसजग कवि के लिए स्पृहा है। ये कविताएँ एक साथ ‘पीड़ित समय के पत्र’ और ‘अन्दरूनी चोटों के घाव’ हैं। नरेश अग्रवाल की इन कविताओं में अधिकतर समाज के उपेक्षित लोगों का जीवन है—कुम्हार, रसोइया, मज़दूर, किसान, बुजुर्ग जैसे लोग एक झोंपड़ी है जिसकी कभी कोई नींव नहीं होती, जैसे कि पृथ्वी के बेसहारा लोग।
नरेशजी की इन कविताओं में गहरी करुणा और जीवनमात्र के प्रति छलछलाता हुआ प्रेम है। चाहे वह बल्ब के बारे में लिखें या अँधेरे के बारे में या फिर मोती के बारे में, एक घना विषाद लगातार साथ चलता है। कवि का स्वर अब अधिक सान्द्र, प्रौढ़ और तना हुआ है। कविताएँ भी अब अधिक संश्लिष्ट व बहुआयामी हैं। सबसे बड़ी बात है कि कवि कहीं भी बहुत मुखर या वाचाल नहीं है। यह वो कवि है जिसने जीवन के सुख-दुख देखे हैं और लगभग निस्पृह भाव से उन्हें अंकित किया है। लेकिन वह हमेशा अबला की चीख़ सुनता है और अनेक धर्मों वाले घर की तलाश करता है। ‘फ़र्क नहीं मिटा’ तथा ‘आकाश भी चकित है’, जहाँ सेब गिर रहे हैं लगातार और कर्फ़्यू जारी है भयंकर त्रासद-बोध की कविताएँ हैं। नरेश अग्रवाल बहुत ख़ामोशी से जीवन के चक्रवातों को वाणी देते हैं। यह कवि अब सभी के समानान्तर सभी के आस-पास चलता और रहता है।
इस संग्रह तक आते-आते नरेश अग्रवाल की भाषा सहज, बेधक और क्षिप्र हुई है। नये ब्योरों और बिम्बों से सम्पन्न यह भाषा कवि की साधना और तपस्या का सुफल है। इसका सर्वोत्तम प्रमाण है ‘घाव’ शीर्षक कविता जहाँ बैल और आदमी एक ही दुख और संघर्ष के भागीदार हैं। ‘साक्षात्कार’ भी एक विलक्षण कविता है और अपने प्रसार में बहुत व्यापक।
नरेश अग्रवाल इस संग्रह के साथ समकालीन हिन्दी कविता की प्रथम नागरिकता के प्रबल दावेदार हैं। ये कविताएँ हमारे भावबोध में बहुत कुछ नया जोड़ती हैं और हमेशा हमारे साथ रहती हैं—हर काम में साथ देने को तैयार जैसे ऐसे कवि से भारतीय कविता नयी ऊँचाइयाँ हासिल करेगी, ऐसी आशा है।—अरुण कमलSKU: VPG9390659746₹172.00₹230.00 -
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Baba Daulatram Varni Ki Solah Rachanaen
0 out of 5(0)बाबा दौलतराम वर्णी की सोलह रचनाएँ –
जैन तीर्थ नैनागिरि के सन्त बाबा दौलतराम वर्णी ने सन् 1902 में छन्दोदय तथा 1904 में इस पुस्तक में प्रकाशित नैनागिरि (रेशिंदिगिरि) पूजन प्रभृति 15 रचनाओं को जन्म दिया है। 116 वर्षों तक लुकी-छिपी इन रचनाओं को अनावृत कर भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली ने जैन दर्शन तथा संस्कृति को यह अनुपम भेंट प्रदान की है।
हिन्दी के सन्त साहित्यकार और जैन शास्त्रकार बाबाजी द्वारा प्रभावी शब्दों तथा लोकप्रिय और मधुर छन्दों में विरचित इन सभी रचनाओं में भगवान की अर्चना, आराधना और उपासना की गयी है। सभी सोलह रचनाएँ तीर्थंकरों और तीर्थों का गुणगान करती हैं। सोलहकारण भावनाओं की भाँति मोक्ष पथ पर आगे बढ़ने में सहायक हैं। न्यूनतम भोग और अल्पतम उपभोग की शिक्षा प्रदान करती हैं।
श्रम साध्य मौलिक सृजन और मूल रचना-कर्म से ओतप्रोत इन रचनाओं में जैन दर्शन के व्यावहारिक सिद्धान्त दर्पण की भाँति स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होते हैं। इन रचनाओं में सर्वत्र अध्यात्मिक वर्णमाला बिखरी हुई है। इस वर्णमाला के स्वर, अक्षर तथा व्यंजन पारस्परिक रूप से मिल-जुलकर शब्द बनते हैं और आध्यात्मिक विकास के पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देते हैं तथा वर्तमान आध्यात्मिक संतों को चारित्रिक विकास के महत्वपूर्ण सूत्र प्रदान करते हैं। निश्चित ही वर्णी जी का यह आध्यात्मिक प्रदेय हम सबके लिए सुस्वादु पाथेय है।SKU: VPG9390659418₹210.00₹280.00
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