This is the expanded edition of A Critical History of Modern Philosophy. This new edition includes Greek and Medieval Philosophy. The book is expected to be more useful for Indian students in its current form. It also contains a comparative and critical account of eight of the most important contributions of modern thinkers. This exposition introduces Bradley and Hegel’s idealism. The latest discussions on Hume, Kant and Hegel have been included. While the author provides a comprehensive analytic view of topics, he maintains that philosophy can be described as a holistic enterprise of mankind, as seen in Spinoza Kant, Hegel, and Bradley. This book is not original and certainly not scholarship. It aims to bring together certain topics in Western Philosophy that are of importance to all students of philosophy. Many of the material was taken from the latest publications and journals. This book is the result of the author’s many years of teaching experience at the University of Magadha. The book has proven to be reliable and helpful for students across India. This revised and expanded edition will be even more useful.
Critical History of Western Philosophy
Out of stock
₹258.00 ₹345.00
Out of stock
Email when stock available
Based on 0 reviews
Be the first to review “Critical History of Western Philosophy” Cancel reply
Related products
-
Uncategorized
Ajneya Rachanawali (Volume-5)
0 out of 5(0)अज्ञेय रचनावली-5
अज्ञेय एक ऐसे विलक्षण और विदग्ध रचनाकार हैं, जिन्होंने भारतीय भाषा और साहित्य को भारतीय आधुनिकता और प्रयोगधर्मिता से सम्पन्न किया है: तथा बीसवीं सदी की मूलभूत अवधारणा ‘स्वतन्त्रता’ को अपने सृजन और चिन्तन में केन्द्रीय स्थान दिया है। उनकी यह भारतीय आधुनिकता उन्हें न सिर्फ़ हिन्दी, बल्कि समूचे भारतीय साहित्य का एक ‘क्लासिक’ बनाती है। विद्रोही और प्रश्नाकुल रचनाकार अज्ञेय ने कविता, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, नाटक, आलोचना, डायरी, यात्रा वृत्तान्त, संस्मरण, सम्पादन, अनुवाद, व्यस्थापन, पत्रकारिता आदि विधाओं में लेखन किया है। उनके क्रान्तिकारी चिन्तन ने प्रयोगवाद, नयी कविता और समकालीन सृजन में निरन्तर नये प्रयोगों से नये सृजन के प्रतिमान निर्मित किये हैं। जड़ीभूत एवं रूढ़ जीवन-मूल्यों से खुला विद्रोह करते हुए इस साधक ने जिन नयी राहों का अन्वेषण किया, वे असहमति और विरोध का मुद्दा भी बनीं, लेकिन आज स्थिति यह है कि अज्ञेय को ठीक से समझे बिना नयी पीढ़ी के रचनाकर्म के संकट का आकलन करना ही मुश्किल है।
‘अज्ञेय रचनावली’ में अज्ञेय का तमाम क्षेत्रों में किया गया विपुल लेखन पहली बार एक जगह समग्र रूप में संकलित है। अज्ञेय जन्म-शताब्दी के इस ऐतिहासिक अवसर पर हिन्दी के मर्मज्ञ और प्रसिद्ध आलोचक प्रो. कृष्णदत्त पालीवाल के सम्पादन में यह कार्य विधिवत सम्पन्न हुआ। आशा है, हिन्दी साहित्य के शोधार्थियों एवं अध्येताओं के लिए अज्ञेय की सम्पूर्ण रचना सामग्री एक ही जगह एक साथ उपलब्ध हो सकेगी।SKU: VPG9326350815₹600.00₹800.00 -
Uncategorized
Adwaitka Upanishad
0 out of 5(0)अद्वैतका उपनिषद् –
आद्य शंकराचार्य भारत को और वैदिक परम्परा को प्राप्त हुआ दिव्य व्यक्तित्व है। गीता में कहा गया है कि जब धर्म की ग्लानि होती है तब मुक्त पुरुष को अवतार लेना पड़ता है। परन्तु भारत में 6-7वें शतक में देवत्व के समकक्ष विद्वान सन्त ने जीवन के पच्चीसवें वर्ष में वैदिक धर्मग्लानि हटाकर नव उत्साह से भारत में वैदिक धर्म की संस्थापना की और यह कार्य आगे अखण्डित और सामर्थ्य से चलता रहे, इस दूरदृष्टि से चार मठों की चार दिशाओं में स्थापना की। इसका परिणाम इतना सशक्त था कि आज तक वह सनातन वैदिक परम्परा हिन्दू नाम से दृढ़मूल है। और दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। आद्य शंकराचार्य जैसा बुद्धितेजस्वी महात्मा, प्रगल्भ विचारक, पन्थसमन्वय महर्षि इस भारत में होना और हिन्दू धर्म को प्राप्त होना, यह इस देश का और धर्म का उच्चतम पुण्यफल ही है। अवैदिक सम्प्रदायों का निरसन कर वैदिक सम्प्रदाय में समन्वय स्थापित कर उन्होंने सर्व सम्प्रदायों की परस्पर द्वेष व मत्सरवादी विचारधारा को समाप्त कर दिया। ‘अद्वैत सिद्धान्त’ की स्थापना करके तथा अपने सर्व देवताओं का गुणगान करने वाले अनेक स्तोत्रों के माध्यम से पुनः अद्वैत का सन्देश देते हुए ‘भक्तिमार्ग’ की बैठक दृढ़मूल की।
मराठी की प्रसिद्ध उपन्यासकार शुभांगी भडभडे ने अपने अमृत महोत्सव वर्ष में हिन्दू धर्म के लिए अमृत रूप महान तत्त्ववेत्ता आद्य शंकराचार्य को अपने उपन्यास का नायक चुना, यह सचमुच रत्नकांचन योग है।
शुभांगी भडभडे ने आद्य शंकराचार्य को साधारण मराठी पाठकों तक पहुँचाने की अपनी प्रतिज्ञा सफलता से पूरी की है। मराठी में रचित उपन्यास का इस हिन्दी अनुवाद को अनेक पाठक मिलें, यही आशा है।SKU: VPG9387919976₹712.00₹950.00 -
Uncategorized
Aage Jo Pichhe Tha
0 out of 5(0)आगे जो पीछे था –
‘स्व के उजागर होने में ही देखना छुपा है।’ -हकु शाह
तमाम जीवों में से शायद मनुष्य में ही यह क्षमता है कि वह अपने से परे हो कर कभी-कभार इस सचराचर धरा और उसके बीच ख़ुद को देख-परख सके। यह देखना-परखना हर कला रूप अपनी तरह से, अपने व्याकरण के तहत करता है। देख्या परखिया सिख्या।
संस्कृति, संस्कार, इतिहास और स्मृति की एक भाँय-भाँय करते कई कमरों वाली हवेली से बाहर बदलते जीवन की खुली सड़क तक की यह यात्रा अपने-अपने औजारों की घिसी हुई थैली उठाये हुए तमाम संगीतकार, नर्तक, चित्रकार, स्थपित, लेखक, कवि सभी करते रहते हैं। कभी झिझक और अचरज से, कभी भय-विस्मय के साथ सहृदय रसिकों की छोड़ दें तो हमारे समय में वह तटस्थ आँख अधिकतर रसिक जनों के मन में बन्द हो कर रह गयी है जो इन कलाकारों की रचनाओं से अचानक कभी पंक्ति से उठा कर स्वर या शब्द या रंग अथवा भंगिमा को कौतुकीभाव से बच्चे की तरह निर्दोष मन से देखे और आनन्दित हो ले।मनीष का यह उपन्यास उसी निर्दोष पारदर्शी दृष्टि का सन्धान कर रहा है जहाँ घर बदर नायक ‘प्रारब्ध’ किसी अज्ञात पुश्तैनी स्मृतियों की हवेली से बरसों बाद निकलकर अपने चारों ओर के बदलाव भरे विश्व से एक कुतूहल भाव से, निर्दोष खुलेपन से सहमता-सा टकरा रहा है। जीवन का प्रमाण तो जीवन ही है, इसलिए नाम, रूप, गन्ध और तमाम ऐन्द्रिक संस्पर्श यहाँ हैं, पर चक्राकार गति से कभी आगे के पीछे तो कभी पीछे के आगे होते हुए। इसे जो इसी कौतुकी भाव से पढ़ेगा सोई परम पद पावेगा। किसी तर्रार-सी, ‘कोटेबल्कोट्स’ से भरी भराई आदि मध्य अन्त वाली नटवर नागर ख़बरिया कथा का सीधे आगे-आगे को भागता तारतम्य नायक प्रारब्ध या उसकी महिला संगिनी रात्रि के नाम, जीवन या गतिविधि में खोजनेवाले सावधान!
यहाँ आकृतियाँ हैं, परछाइयाँ हैं, धूल-भरी सड़कें और परछाइयों के बीच पड़े फूल और उनके रंग हैं। यह देखना एक चितेरे का शब्दों को पदार्थों को कभी उनके शब्दनाम से जोड़ कर, कभी उससे हटा कर दूसरे शब्द के बगल में रख कर देखना है, इस प्रक्रिया में सब कुछ बदलता है, रंग, शब्द, आकार, रेखाएँ और परम्परा की स्मृतियाँ समय यहाँ घड़ी के काँटों या कलेंडरी तारीख़ों से नहीं बनता। यह कायान्तरण की ज़मीन है जहाँ हर पदार्थ किसी तरह से हर दूसरे पदार्थ से जुड़ा है और अचानक दोनों से किसी तीसरे पदार्थ को उभरते हुए हम देखते हैं।
यहाँ असल सवाल अमीरी बनाम ग़रीबी, भोग बनाम वैराग्य या संकलन बनाम अपरिग्रह का नहीं, इन सबके मथे जाने से निकलते एक अमूर्त सत्य को पुराने सधुक्कड़ी फ़क़ीरों योगियों की तरह किसी अतिपरिचित दृश्य या शब्द या उपादान के माध्यम से हठात् देख सकने का है। जब भूमि नयी-नयी थी, संस्कृति शब्दों की वाचिकता में महफ़ूज़ थी और छापे की मशीनों वाले परदेसी जहाज़ पहली बार तट पर लग रहे थे। हमारे स्वाधीन पुरखों ने परम्परा की जड़ पर मँडराता ख़तरा देखा और शब्दों, बिम्बों, ध्वनियों को किसी क़दर नष्ट होने से बचाया था।
यह उपन्यास अतिपरिष्कार, अतिवाचालता और अतिअन्तरंगता से टनाटन लेखन विश्व से उलट कर एक खोये हुए सहज, सुगम और सघन मार्ग और शाब्दिक जड़ों की ईमानदार टोह यात्रा है जिसका न कोई शुरू है न ही अन्त। निरन्तरता ही इसका प्रारब्ध है और रात्रि इसके रंगों आकारों का गुप्त तलघर। -मृणाल पाण्डेSKU: VPG9326354905₹150.00₹200.00
There are no reviews yet.