This article is intended to provide an overview of Indian thought based on original texts and commentary. Sometimes, however, the author may have borrowed or discussed the views of others writers when assessing chronological facts. The material covered was often completely new. This has happened because the author did a thorough and direct study of all manuscripts and texts available. This work is available in five volumes. Vol. Vol. It also includes the philosophy of Yogavasistha and the Bhagavadgita, as well as speculations about medical schools. Vol. Vol. III provides an in-depth account of the Principal Dualistic & Pluralistic Systems, including the philosophy of the Pancaratra and Yamuna and Ramanuja, Nimbarka and Vijnanabhiksu, as well as philosophical speculations about some selected Puranas. Vol. IV is concerned with the Bhagavata purana, Madhva, his School, Vallabha and Caitanya as well as Jiva Gosvami, Baladeva Vidyabhusana and Madhva. Vol. Vol. Saiva Philosophy is found in the Puranas as well as in other important texts.
HISTORY OF INDIAN PHILOSOPHY (5 Vols.)(VOL-1)
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Ae Mere Rehnuma
0 out of 5(0)ऐ मेरे रहनुमा –
तसनीम ख़ान की अनुशंसित कृति ‘ऐ मेरे रहनुमा’ प्रकाशित करते हुए सन्तोष का अनुभव हो रहा है। भारत ही नहीं विश्व की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करनेवाले स्त्री-स्वर का यथार्थ इस उपन्यास की केन्द्रीय भावभूमि है। विशेषकर अल्पसंख्यक समाजों में मुस्लिम स्त्री जीवन की आज़ादी के गम्भीर सवालों को उजागर करता यह उपन्यास सदियों से चलती आ रही पितृसत्तात्मक संरचनाओं का तटस्थ मूल्यांकन करता है।
इस कथा में आधुनिक स्त्री के जीवन के अँधेरों को भी बख़ूबी चित्रित किया गया है। इन अँधेरों से निकलने की छटपटाहट और प्रतिरोध की अभिव्यक्ति उपन्यास को महत्त्वपूर्ण बनाती हैं।
इधर जबकि उपन्यास का कथ्य तफ़सीलों और आँकड़ों से कुछ बोझिल होकर आलोचना के दायरे में है तब तसनीम ख़ान का यह उपन्यास अपनी भाषा की ताज़गी और सहज रवानी के कारण पाठ के सुख से आनन्दित करता है।
लेखिका ने छोटे-छोटे वाक्य और संवादों की स्फूर्ति से उपन्यास को सायास निर्मिति के दबाव से मुक्त कर स्त्री अस्मिता के प्रश्न को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। उम्मीद है पाठक को यह उपन्यास अपने समाज का ही आत्मीय परिसर लगेगा।SKU: VPG9326354844₹187.00₹250.00 -
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Ajneya Rachanawali (Volume-10)
0 out of 5(0)अज्ञेय रचनावली-10
अज्ञेय एक ऐसे विलक्षण और विदग्ध रचनाकार हैं, जिन्होंने भारतीय भाषा और साहित्य को भारतीय आधुनिकता और प्रयोगधर्मिता से सम्पन्न किया है: तथा बीसवीं सदी की मूलभूत अवधारणा ‘स्वतन्त्रता’ को अपने सृजन और चिन्तन में केन्द्रीय स्थान दिया है। उनकी यह भारतीय आधुनिकता उन्हें न सिर्फ़ हिन्दी, बल्कि समूचे भारतीय साहित्य का एक ‘क्लासिक’ बनाती है। विद्रोही और प्रश्नाकुल रचनाकार अज्ञेय ने कविता, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, नाटक, आलोचना, डायरी, यात्रा वृत्तान्त, संस्मरण, सम्पादन, अनुवाद, व्यस्थापन, पत्रकारिता आदि विधाओं में लेखन किया है। उनके क्रान्तिकारी चिन्तन ने प्रयोगवाद, नयी कविता और समकालीन सृजन में निरन्तर नये प्रयोगों से नये सृजन के प्रतिमान निर्मित किये हैं। जड़ीभूत एवं रूढ़ जीवन-मूल्यों से खुला विद्रोह करते हुए इस साधक ने जिन नयी राहों का अन्वेषण किया, वे असहमति और विरोध का मुद्दा भी बनीं, लेकिन आज स्थिति यह है कि अज्ञेय को ठीक से समझे बिना नयी पीढ़ी के रचनाकर्म के संकट का आकलन करना ही मुश्किल है।
‘अज्ञेय रचनावली’ में अज्ञेय का तमाम क्षेत्रों में किया गया विपुल लेखन पहली बार एक जगह समग्र रूप में संकलित है। अज्ञेय जन्म-शताब्दी के इस ऐतिहासिक अवसर पर हिन्दी के मर्मज्ञ और प्रसिद्ध आलोचक प्रो. कृष्णदत्त पालीवाल के सम्पादन में यह कार्य विधिवत सम्पन्न हुआ। आशा है, हिन्दी साहित्य के शोधार्थियों एवं अध्येताओं के लिए अज्ञेय की सम्पूर्ण रचना सामग्री एक ही जगह एक साथ उपलब्ध हो सकेगी।SKU: VPG9326352260₹600.00₹800.00 -
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Adwaitka Upanishad
0 out of 5(0)अद्वैतका उपनिषद् –
आद्य शंकराचार्य भारत को और वैदिक परम्परा को प्राप्त हुआ दिव्य व्यक्तित्व है। गीता में कहा गया है कि जब धर्म की ग्लानि होती है तब मुक्त पुरुष को अवतार लेना पड़ता है। परन्तु भारत में 6-7वें शतक में देवत्व के समकक्ष विद्वान सन्त ने जीवन के पच्चीसवें वर्ष में वैदिक धर्मग्लानि हटाकर नव उत्साह से भारत में वैदिक धर्म की संस्थापना की और यह कार्य आगे अखण्डित और सामर्थ्य से चलता रहे, इस दूरदृष्टि से चार मठों की चार दिशाओं में स्थापना की। इसका परिणाम इतना सशक्त था कि आज तक वह सनातन वैदिक परम्परा हिन्दू नाम से दृढ़मूल है। और दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। आद्य शंकराचार्य जैसा बुद्धितेजस्वी महात्मा, प्रगल्भ विचारक, पन्थसमन्वय महर्षि इस भारत में होना और हिन्दू धर्म को प्राप्त होना, यह इस देश का और धर्म का उच्चतम पुण्यफल ही है। अवैदिक सम्प्रदायों का निरसन कर वैदिक सम्प्रदाय में समन्वय स्थापित कर उन्होंने सर्व सम्प्रदायों की परस्पर द्वेष व मत्सरवादी विचारधारा को समाप्त कर दिया। ‘अद्वैत सिद्धान्त’ की स्थापना करके तथा अपने सर्व देवताओं का गुणगान करने वाले अनेक स्तोत्रों के माध्यम से पुनः अद्वैत का सन्देश देते हुए ‘भक्तिमार्ग’ की बैठक दृढ़मूल की।
मराठी की प्रसिद्ध उपन्यासकार शुभांगी भडभडे ने अपने अमृत महोत्सव वर्ष में हिन्दू धर्म के लिए अमृत रूप महान तत्त्ववेत्ता आद्य शंकराचार्य को अपने उपन्यास का नायक चुना, यह सचमुच रत्नकांचन योग है।
शुभांगी भडभडे ने आद्य शंकराचार्य को साधारण मराठी पाठकों तक पहुँचाने की अपनी प्रतिज्ञा सफलता से पूरी की है। मराठी में रचित उपन्यास का इस हिन्दी अनुवाद को अनेक पाठक मिलें, यही आशा है।SKU: VPG9387919976₹712.00₹950.00 -
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17 Ranade Road
0 out of 5(0)17 रानडे रोड –
’17 रानडे रोड’ कथाकार सम्पादक रवीन्द्र कालिया का ‘ख़ुदा सही सलामत है’ और ‘एबीसीडी’ के बाद तीसरा उपन्यास है। यह उपन्यास पाठकों को बम्बई (अब मुम्बई) के ग्लैमर वर्ल्ड के उस नये इलाक़े में ले जाता है, जिसे अब तक ऊपर-ऊपर से छुआ तो बहुतों ने, लेकिन उसके सातवें ताले की चाबी जैसे रवीन्द्र कालिया के पास ही थी। पढ़ते हुए इसमें कई जाने-सुने चेहरे मिलेंगे— जिन्हें पाठकों ने सेवंटी एमएम स्क्रीन पर देखा और पेज थ्री के रंगीन पन्नों पर पढ़ा होगा। यहाँ लेखक उन चेहरों पर अपना कैमरा ज़ूम-इन करता है जहाँ चिकने फेशियल की परतें उतरती हैं और (बकौल लेखक ही) एक ‘दाग़-दाग़ उजाला’ दिखने लगता है।
‘ग़ालिब छुटी शराब’ की रवानगी यहाँ अपने उरूज़ पर है। भाषा में विट का बेहतरीन प्रयोग रवीन्द्र कालिया की विशिष्टता है। कई बार एक अदद जुमले के सहारे वे ऐसी बात कह जाते हैं जिन्हें गम्भीर क़लम तीन-चार पन्नों में भी नहीं आँक पाती। लेकिन इस बिना पर रवीन्द्र कालिया को समझना उसी प्रकार कठिन है जैसे ‘ग़ालिब छुटी शराब’ के मूड को चीज़ों के सरलीकरण के अभ्यस्त लोग नहीं समझ पाते। ‘मेरे तईं ग़ालिब…’ रवीन्द्र कालिया की अब तक की सबसे ट्रैजिक रचना थी। दरअसल रवीन्द्र कालिया हमेशा एक उदास टेक्स्चर को एक आह्लादपरक ज़ेस्चर की मार्फ़त उद्घाटित करते हैं।
उपन्यास के नायक सम्पूरन उर्फ़ एस.के. ओबेरॉय उर्फ ओबी ने जिस जीवन शैली को अपने लिए जिस डिक्शन को और यहाँ तक कि अपनी रहनवारी के लिए जिस भुतहे मकान को चुना है, वह आज की धुर पूँजीवादी व उपभोक्तावादी दुनिया में एक एंटीडोट का काम करता है। ओबी की दुनिया अपने इर्द-गिर्द की इस चमकीली दुनिया के बरअक्स इतनी ज़्यादा चमकीली और भड़काऊ है कि अपने अतिरेक में यह एक प्रतिसंसार उपस्थित कर देती है।
सम्पूरन इसलिए भी एक अद्वितीय पात्र बन पड़ा है कि जब दुनिया धुर पूँजीवादी हो चली है, वह पूँजी की न्यूनतम महिमा को भी ध्वस्त कर देता है। वह पैसे का दुश्मन है—क़र्ज़, सूद, उधार, अमीरी, ग़रीबी, दान, दक्षिणा आदि जो धन केन्द्रित तमाम जागतिक क्रियाशीलताएँ हैं, वह ओबी के जीवन से पूरी तरह अनुपस्थित हैं। वह हर तरह के दुनियावी बैलेंस शीट, बही-खाते, गिनती-हिसाब से परे एक विशुद्ध फ़क्कड़ और फ़क़ीर है। एक तरफ़ यदि यह सम्भव है कि वह रात में फ़िल्म इंडस्ट्री के नामी-गिरामी हस्तियों को महँगी शराब पिला रहा है, तो दूसरी तरफ़ यह भी असम्भव नहीं कि अगले दिन उसके पास टैक्सी का किराया भी न हो। वह कुलियों की तरह धनार्जन करता है ताकि राजकुमारों की तरह ख़र्च कर सके।
सम्पूरन एक कभी न थकने वाला जुझारू चरित्र भी है। वह कभी हार नहीं मानता, फ़ीनिक्स की तरह अपनी ही राख से फिर-फिर जी उठता है। बम्बई में जब कभी उसकी जेब पूरी तरह ख़ाली हो जाती है और उम्मीद की कोई किरण नहीं दीख पड़ती, वह अपना पोर्टफ़ोलियो उठाकर लोगों को पत्रिकाओं का सदस्य बनाना शुरू कर देता है। उपन्यास के अन्त-अन्त तक, जब वह सफलता का अर्श चूमने ही को होता है, एक करारे धक्के से फिर फ़र्श पर औंधे मुँह गिर पड़ता है लेकिन जब वह पुनः पोर्टफ़ोलियो उठाकर निकल पड़ने के लिए कमर कस लेता है, सुप्रिया की तरह ही पाठक उसे कौतुक, प्रशंसा और प्यार भरी नज़रों से देखने को बाध्य हो जाते हैं। एक अद्वितीय उपन्यास। —कुणाल सिंहSKU: VPG9326351904₹225.00₹300.00
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