This book will clarify various aspects of Indian philosophy using concepts from text science to their analysis. Text science attempts establish universal rules that apply to all expressions of human speech. All human expression, including behavior, is communication. It contains a meaning system regardless of whether it uses language. We can classify human expression as language, figure and body action. For this reason, all forms of expression are considered texts. Universal rules must be applied for each form. Text science aims to understand how rules work across different types of texts, and provide a better understanding about human behavior. The direction of analysis here is from context to the text. You can also move from text. It is possible to also move from one text to another. It is possible to find a new context by reading commentaries. This context cannot be found through only one text. This context will help us to interpret the other texts in a coherent way. These two directions of analysis and the concept of context may not be new to scholars of Indian Studies, who are often unaware of this approach. We will however try to make this method conscious. This book’s underlying principle states that to understand Sanskrit texts or any other language, we must turn our attention to factors outside them. For example, information from other areas of study. These factors are called context. This concept has been used by all contributors to this book. There are nine papers that have been divided into four sections: General, Buddhism and Vedanta, Mimamsa, Vyakarana, Nyaya, and Vaisesika.
Indian Philosophy and Text Science
Out of stock
₹371.00 ₹495.00
Out of stock
Email when stock available
Based on 0 reviews
Be the first to review “Indian Philosophy and Text Science” Cancel reply
Related products
-
Uncategorized
Aadigram Upakhayan
0 out of 5(0)आदिग्राम उपाख्यान –
नयी सदी में उभरे कतिपय महत्त्वपूर्ण कथाकारों में से एक कुणाल सिंह का यह पहला उपन्यास है। अपने इस पहले ही उपन्यास में कुणाल ने इस मिथ को समूल झुठलाया है कि आज की पीढ़ी नितान्त ग़ैर-राजनीतिक पीढ़ी है। अपने गहनतम अर्थों में ‘आदिग्राम उपाख्यान’ एक निर्भीक राजनीतिक उपन्यास है।
यह ग़ुस्से में लिखा गया उपन्यास है—ऐसा ग़ुस्सा, जो एक विराट मोहभंग के बाद रचनाकार की लेखकी में घर कर जाता है। इस उपन्यास के पन्ने-दर-पन्ने इसी ग़ुस्से को पोसते-पालते हैं। नब्बे के बाद भारतीय राजनीति में अपराधीकरण, भ्रष्टाचार, आइडियोलॉजी का ह्रास, लालफ़ीताशाही आदि का जो बोलबाला दिखता है, उसके प्रति रचनाकार ग़ुस्से से भरा हुआ है। लेकिन यहाँ यह भी जोड़ना चाहिए कि यह ग़ुस्सा अकर्मक कतई नहीं है। सबकुछ को नकारकर छुट्टी पा लेने का रोमांटिक भाव इसमें हरगिज़ नहीं, और न ही किसी सुरक्षित घेरे में रहकर फ़ैसला सुनाने की इन्नोसेंसी यहाँ है। गो जब हम कहते हैं कि किसी भी पार्टी या विचारधारा में हमारा विश्वास नहीं, तो इसे परले दर्जे के एक पोलिटिकल स्टैंड के रूप में ही लेना चाहिए। इधर के कुछ वर्षों में पश्चिम बंगाल के वामपन्थ में आये विचलनों पर उँगली रखते हुए कुणाल सिंह को देखकर हमें बारहाँ यह दिख जाता है कि वे ख़ुद कितने कट्टर वामपन्थी हैं।
कुणाल की लेखनी का जादू यहाँ अपने उत्कर्ष पर है। अपूर्व शिल्प और भाषा को बरतने का एक ख़ास ढब कुणाल ने अर्जित किया है, जिसका आस्वाद यहाँ पहले की निस्बत अधिक सान्द्र है। यहाँ यथार्थ की घटनात्मक विस्तृति के साथ-साथ किंचित स्वैरमूलक और संवेदनात्मक उत्खनन भी है। कहें, कुणाल ने यथार्थ के थ्री डाइमेंशनल स्वरूप को पकड़ा है। कई बार घटनाओं की आवृत्ति होती है, लेकिन हर बार के दोहराव में एक अन्य पहलू जुड़कर कथा को एक नया रुख़ दे देता है। कुणाल ज़बर्दस्त क़िस्सागो हैं और फ़ैंटेसी की रचना में उस्ताद। लगभग दो सौ पृष्ठों के इस उपन्यास में अमूमन इतने ही पात्र हैं, लेकिन कथाक्रम पूर्णतः अबाधित है। बंगाल के गाँव और गँवई लोगों का एक ख़ास चरित्र भी यहाँ निर्धारित होता है, बिना आंचलिकता का ढोल पीटे। आश्चर्य नहीं कि इस उपन्यास से गुज़रने के बाद बाघा, दक्खिना, हराधन, भागी मण्डल, गुलाब, पंचानन बाबू, रघुनाथ जैसे पात्रों से ऐसा तआरुफ़ हो कि वे पाठकों के ज़हन में अपने लिए एक कोना सदा सर्वदा के लिए सुरक्षित कर लें। संक्षेप में एक स्वागतयोग्य उपन्यास निश्चित रूप से वर्तमान युवा पीढ़ी के लेखन में एक सार्थक हस्तक्षेप डालने वाली कृति।SKU: VPG8126319626₹150.00₹200.00 -
Uncategorized
Agni Parv
0 out of 5(0)अग्निपर्व –
निजी स्वार्थ व अद्भुत त्याग के बीच टूटते-जुड़ते रिश्तों की अभूतपूर्व गाथा है ‘अग्निपर्व’। लेखिका ने जीवन के कई उतार-चढ़ाव के माध्यम से उपन्यास को रचा है। रक्त-मांस के सम्बन्धों में गुथे हुए विघटनवादी विषैले प्रभावों से दूर मनोमय जगत के दिव्य बन्धन को अपने लिए शाश्वत प्राप्य मानकर कोई यात्रा जब आगे बढ़ती है तब पीछे के कितने ही पड़ाव साथ नहीं दे पाते। यह अनुभव ही इस अग्निपर्व की सबसे बड़ी रसद है और यह प्रतीति ही इसकी एकमात्र प्रतिबद्धता।SKU: VPG9326355049₹75.00₹100.00 -
Uncategorized
Ae Mere Rehnuma
0 out of 5(0)ऐ मेरे रहनुमा –
तसनीम ख़ान की अनुशंसित कृति ‘ऐ मेरे रहनुमा’ प्रकाशित करते हुए सन्तोष का अनुभव हो रहा है। भारत ही नहीं विश्व की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करनेवाले स्त्री-स्वर का यथार्थ इस उपन्यास की केन्द्रीय भावभूमि है। विशेषकर अल्पसंख्यक समाजों में मुस्लिम स्त्री जीवन की आज़ादी के गम्भीर सवालों को उजागर करता यह उपन्यास सदियों से चलती आ रही पितृसत्तात्मक संरचनाओं का तटस्थ मूल्यांकन करता है।
इस कथा में आधुनिक स्त्री के जीवन के अँधेरों को भी बख़ूबी चित्रित किया गया है। इन अँधेरों से निकलने की छटपटाहट और प्रतिरोध की अभिव्यक्ति उपन्यास को महत्त्वपूर्ण बनाती हैं।
इधर जबकि उपन्यास का कथ्य तफ़सीलों और आँकड़ों से कुछ बोझिल होकर आलोचना के दायरे में है तब तसनीम ख़ान का यह उपन्यास अपनी भाषा की ताज़गी और सहज रवानी के कारण पाठ के सुख से आनन्दित करता है।
लेखिका ने छोटे-छोटे वाक्य और संवादों की स्फूर्ति से उपन्यास को सायास निर्मिति के दबाव से मुक्त कर स्त्री अस्मिता के प्रश्न को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। उम्मीद है पाठक को यह उपन्यास अपने समाज का ही आत्मीय परिसर लगेगा।SKU: VPG9326354844₹187.00₹250.00 -
Uncategorized
Aage Jo Pichhe Tha
0 out of 5(0)आगे जो पीछे था –
‘स्व के उजागर होने में ही देखना छुपा है।’ -हकु शाह
तमाम जीवों में से शायद मनुष्य में ही यह क्षमता है कि वह अपने से परे हो कर कभी-कभार इस सचराचर धरा और उसके बीच ख़ुद को देख-परख सके। यह देखना-परखना हर कला रूप अपनी तरह से, अपने व्याकरण के तहत करता है। देख्या परखिया सिख्या।
संस्कृति, संस्कार, इतिहास और स्मृति की एक भाँय-भाँय करते कई कमरों वाली हवेली से बाहर बदलते जीवन की खुली सड़क तक की यह यात्रा अपने-अपने औजारों की घिसी हुई थैली उठाये हुए तमाम संगीतकार, नर्तक, चित्रकार, स्थपित, लेखक, कवि सभी करते रहते हैं। कभी झिझक और अचरज से, कभी भय-विस्मय के साथ सहृदय रसिकों की छोड़ दें तो हमारे समय में वह तटस्थ आँख अधिकतर रसिक जनों के मन में बन्द हो कर रह गयी है जो इन कलाकारों की रचनाओं से अचानक कभी पंक्ति से उठा कर स्वर या शब्द या रंग अथवा भंगिमा को कौतुकीभाव से बच्चे की तरह निर्दोष मन से देखे और आनन्दित हो ले।मनीष का यह उपन्यास उसी निर्दोष पारदर्शी दृष्टि का सन्धान कर रहा है जहाँ घर बदर नायक ‘प्रारब्ध’ किसी अज्ञात पुश्तैनी स्मृतियों की हवेली से बरसों बाद निकलकर अपने चारों ओर के बदलाव भरे विश्व से एक कुतूहल भाव से, निर्दोष खुलेपन से सहमता-सा टकरा रहा है। जीवन का प्रमाण तो जीवन ही है, इसलिए नाम, रूप, गन्ध और तमाम ऐन्द्रिक संस्पर्श यहाँ हैं, पर चक्राकार गति से कभी आगे के पीछे तो कभी पीछे के आगे होते हुए। इसे जो इसी कौतुकी भाव से पढ़ेगा सोई परम पद पावेगा। किसी तर्रार-सी, ‘कोटेबल्कोट्स’ से भरी भराई आदि मध्य अन्त वाली नटवर नागर ख़बरिया कथा का सीधे आगे-आगे को भागता तारतम्य नायक प्रारब्ध या उसकी महिला संगिनी रात्रि के नाम, जीवन या गतिविधि में खोजनेवाले सावधान!
यहाँ आकृतियाँ हैं, परछाइयाँ हैं, धूल-भरी सड़कें और परछाइयों के बीच पड़े फूल और उनके रंग हैं। यह देखना एक चितेरे का शब्दों को पदार्थों को कभी उनके शब्दनाम से जोड़ कर, कभी उससे हटा कर दूसरे शब्द के बगल में रख कर देखना है, इस प्रक्रिया में सब कुछ बदलता है, रंग, शब्द, आकार, रेखाएँ और परम्परा की स्मृतियाँ समय यहाँ घड़ी के काँटों या कलेंडरी तारीख़ों से नहीं बनता। यह कायान्तरण की ज़मीन है जहाँ हर पदार्थ किसी तरह से हर दूसरे पदार्थ से जुड़ा है और अचानक दोनों से किसी तीसरे पदार्थ को उभरते हुए हम देखते हैं।
यहाँ असल सवाल अमीरी बनाम ग़रीबी, भोग बनाम वैराग्य या संकलन बनाम अपरिग्रह का नहीं, इन सबके मथे जाने से निकलते एक अमूर्त सत्य को पुराने सधुक्कड़ी फ़क़ीरों योगियों की तरह किसी अतिपरिचित दृश्य या शब्द या उपादान के माध्यम से हठात् देख सकने का है। जब भूमि नयी-नयी थी, संस्कृति शब्दों की वाचिकता में महफ़ूज़ थी और छापे की मशीनों वाले परदेसी जहाज़ पहली बार तट पर लग रहे थे। हमारे स्वाधीन पुरखों ने परम्परा की जड़ पर मँडराता ख़तरा देखा और शब्दों, बिम्बों, ध्वनियों को किसी क़दर नष्ट होने से बचाया था।
यह उपन्यास अतिपरिष्कार, अतिवाचालता और अतिअन्तरंगता से टनाटन लेखन विश्व से उलट कर एक खोये हुए सहज, सुगम और सघन मार्ग और शाब्दिक जड़ों की ईमानदार टोह यात्रा है जिसका न कोई शुरू है न ही अन्त। निरन्तरता ही इसका प्रारब्ध है और रात्रि इसके रंगों आकारों का गुप्त तलघर। -मृणाल पाण्डेSKU: VPG9326354905₹150.00₹200.00
There are no reviews yet.