Johannes BronkhorstThis book focuses on Gangesa’s Pramanavada and includes an English translation of the Sanskrit text. This study clarifies truth in Indian philosophy, particularly in the Nyaya and Mimamsa systems. It also attempts to critically evaluate the Pramanya theories. Scholars have not paid much attention to the precise explanation of the concept truth in Indian philosophy. This book clarifies and brings to light the concepts and answers the simple but important question: Is pramanya svatah a or paratah? It is one of those questions: Is Pramanya paratah or svatah? This is one of those questions that every school worth its name has an answer to. There was an endless stream of arguments and counter-arguments. This study clarifies the issue at the center of these theories, and then analyzes the arguments made by different schools to support their claims. Gangesa’s outstanding contribution to the problem is brought to the forefront.
Word Index to the Prasastapadabhasya
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Ajneya Rachanawali (Volume-4)
0 out of 5(0)अज्ञेय रचनावली-4
अज्ञेय एक ऐसे विलक्षण और विदग्ध रचनाकार हैं, जिन्होंने भारतीय भाषा और साहित्य को भारतीय आधुनिकता और प्रयोगधर्मिता से सम्पन्न किया है: तथा बीसवीं सदी की मूलभूत अवधारणा ‘स्वतन्त्रता’ को अपने सृजन और चिन्तन में केन्द्रीय स्थान दिया है। उनकी यह भारतीय आधुनिकता उन्हें न सिर्फ़ हिन्दी, बल्कि समूचे भारतीय साहित्य का एक ‘क्लासिक’ बनाती है। विद्रोही और प्रश्नाकुल रचनाकार अज्ञेय ने कविता, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, नाटक, आलोचना, डायरी, यात्रा वृत्तान्त, संस्मरण, सम्पादन, अनुवाद, व्यस्थापन, पत्रकारिता आदि विधाओं में लेखन किया है। उनके क्रान्तिकारी चिन्तन ने प्रयोगवाद, नयी कविता और समकालीन सृजन में निरन्तर नये प्रयोगों से नये सृजन के प्रतिमान निर्मित किये हैं। जड़ीभूत एवं रूढ़ जीवन-मूल्यों से खुला विद्रोह करते हुए इस साधक ने जिन नयी राहों का अन्वेषण किया, वे असहमति और विरोध का मुद्दा भी बनीं, लेकिन आज स्थिति यह है कि अज्ञेय को ठीक से समझे बिना नयी पीढ़ी के रचनाकर्म के संकट का आकलन करना ही मुश्किल है।
‘अज्ञेय रचनावली’ में अज्ञेय का तमाम क्षेत्रों में किया गया विपुल लेखन पहली बार एक जगह समग्र रूप में संकलित है। अज्ञेय जन्म-शताब्दी के इस ऐतिहासिक अवसर पर हिन्दी के मर्मज्ञ और प्रसिद्ध आलोचक प्रो. कृष्णदत्त पालीवाल के सम्पादन में यह कार्य विधिवत सम्पन्न हुआ। आशा है, हिन्दी साहित्य के शोधार्थियों एवं अध्येताओं के लिए अज्ञेय की सम्पूर्ण रचना सामग्री एक ही जगह एक साथ उपलब्ध हो सकेगी।SKU: VPG8126320950₹750.00₹1,000.00 -
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17 Ranade Road
0 out of 5(0)17 रानडे रोड –
’17 रानडे रोड’ कथाकार सम्पादक रवीन्द्र कालिया का ‘ख़ुदा सही सलामत है’ और ‘एबीसीडी’ के बाद तीसरा उपन्यास है। यह उपन्यास पाठकों को बम्बई (अब मुम्बई) के ग्लैमर वर्ल्ड के उस नये इलाक़े में ले जाता है, जिसे अब तक ऊपर-ऊपर से छुआ तो बहुतों ने, लेकिन उसके सातवें ताले की चाबी जैसे रवीन्द्र कालिया के पास ही थी। पढ़ते हुए इसमें कई जाने-सुने चेहरे मिलेंगे— जिन्हें पाठकों ने सेवंटी एमएम स्क्रीन पर देखा और पेज थ्री के रंगीन पन्नों पर पढ़ा होगा। यहाँ लेखक उन चेहरों पर अपना कैमरा ज़ूम-इन करता है जहाँ चिकने फेशियल की परतें उतरती हैं और (बकौल लेखक ही) एक ‘दाग़-दाग़ उजाला’ दिखने लगता है।
‘ग़ालिब छुटी शराब’ की रवानगी यहाँ अपने उरूज़ पर है। भाषा में विट का बेहतरीन प्रयोग रवीन्द्र कालिया की विशिष्टता है। कई बार एक अदद जुमले के सहारे वे ऐसी बात कह जाते हैं जिन्हें गम्भीर क़लम तीन-चार पन्नों में भी नहीं आँक पाती। लेकिन इस बिना पर रवीन्द्र कालिया को समझना उसी प्रकार कठिन है जैसे ‘ग़ालिब छुटी शराब’ के मूड को चीज़ों के सरलीकरण के अभ्यस्त लोग नहीं समझ पाते। ‘मेरे तईं ग़ालिब…’ रवीन्द्र कालिया की अब तक की सबसे ट्रैजिक रचना थी। दरअसल रवीन्द्र कालिया हमेशा एक उदास टेक्स्चर को एक आह्लादपरक ज़ेस्चर की मार्फ़त उद्घाटित करते हैं।
उपन्यास के नायक सम्पूरन उर्फ़ एस.के. ओबेरॉय उर्फ ओबी ने जिस जीवन शैली को अपने लिए जिस डिक्शन को और यहाँ तक कि अपनी रहनवारी के लिए जिस भुतहे मकान को चुना है, वह आज की धुर पूँजीवादी व उपभोक्तावादी दुनिया में एक एंटीडोट का काम करता है। ओबी की दुनिया अपने इर्द-गिर्द की इस चमकीली दुनिया के बरअक्स इतनी ज़्यादा चमकीली और भड़काऊ है कि अपने अतिरेक में यह एक प्रतिसंसार उपस्थित कर देती है।
सम्पूरन इसलिए भी एक अद्वितीय पात्र बन पड़ा है कि जब दुनिया धुर पूँजीवादी हो चली है, वह पूँजी की न्यूनतम महिमा को भी ध्वस्त कर देता है। वह पैसे का दुश्मन है—क़र्ज़, सूद, उधार, अमीरी, ग़रीबी, दान, दक्षिणा आदि जो धन केन्द्रित तमाम जागतिक क्रियाशीलताएँ हैं, वह ओबी के जीवन से पूरी तरह अनुपस्थित हैं। वह हर तरह के दुनियावी बैलेंस शीट, बही-खाते, गिनती-हिसाब से परे एक विशुद्ध फ़क्कड़ और फ़क़ीर है। एक तरफ़ यदि यह सम्भव है कि वह रात में फ़िल्म इंडस्ट्री के नामी-गिरामी हस्तियों को महँगी शराब पिला रहा है, तो दूसरी तरफ़ यह भी असम्भव नहीं कि अगले दिन उसके पास टैक्सी का किराया भी न हो। वह कुलियों की तरह धनार्जन करता है ताकि राजकुमारों की तरह ख़र्च कर सके।
सम्पूरन एक कभी न थकने वाला जुझारू चरित्र भी है। वह कभी हार नहीं मानता, फ़ीनिक्स की तरह अपनी ही राख से फिर-फिर जी उठता है। बम्बई में जब कभी उसकी जेब पूरी तरह ख़ाली हो जाती है और उम्मीद की कोई किरण नहीं दीख पड़ती, वह अपना पोर्टफ़ोलियो उठाकर लोगों को पत्रिकाओं का सदस्य बनाना शुरू कर देता है। उपन्यास के अन्त-अन्त तक, जब वह सफलता का अर्श चूमने ही को होता है, एक करारे धक्के से फिर फ़र्श पर औंधे मुँह गिर पड़ता है लेकिन जब वह पुनः पोर्टफ़ोलियो उठाकर निकल पड़ने के लिए कमर कस लेता है, सुप्रिया की तरह ही पाठक उसे कौतुक, प्रशंसा और प्यार भरी नज़रों से देखने को बाध्य हो जाते हैं। एक अद्वितीय उपन्यास। —कुणाल सिंहSKU: VPG9326351904₹225.00₹300.00 -
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Aadigram Upakhayan
0 out of 5(0)आदिग्राम उपाख्यान –
नयी सदी में उभरे कतिपय महत्त्वपूर्ण कथाकारों में से एक कुणाल सिंह का यह पहला उपन्यास है। अपने इस पहले ही उपन्यास में कुणाल ने इस मिथ को समूल झुठलाया है कि आज की पीढ़ी नितान्त ग़ैर-राजनीतिक पीढ़ी है। अपने गहनतम अर्थों में ‘आदिग्राम उपाख्यान’ एक निर्भीक राजनीतिक उपन्यास है।
यह ग़ुस्से में लिखा गया उपन्यास है—ऐसा ग़ुस्सा, जो एक विराट मोहभंग के बाद रचनाकार की लेखकी में घर कर जाता है। इस उपन्यास के पन्ने-दर-पन्ने इसी ग़ुस्से को पोसते-पालते हैं। नब्बे के बाद भारतीय राजनीति में अपराधीकरण, भ्रष्टाचार, आइडियोलॉजी का ह्रास, लालफ़ीताशाही आदि का जो बोलबाला दिखता है, उसके प्रति रचनाकार ग़ुस्से से भरा हुआ है। लेकिन यहाँ यह भी जोड़ना चाहिए कि यह ग़ुस्सा अकर्मक कतई नहीं है। सबकुछ को नकारकर छुट्टी पा लेने का रोमांटिक भाव इसमें हरगिज़ नहीं, और न ही किसी सुरक्षित घेरे में रहकर फ़ैसला सुनाने की इन्नोसेंसी यहाँ है। गो जब हम कहते हैं कि किसी भी पार्टी या विचारधारा में हमारा विश्वास नहीं, तो इसे परले दर्जे के एक पोलिटिकल स्टैंड के रूप में ही लेना चाहिए। इधर के कुछ वर्षों में पश्चिम बंगाल के वामपन्थ में आये विचलनों पर उँगली रखते हुए कुणाल सिंह को देखकर हमें बारहाँ यह दिख जाता है कि वे ख़ुद कितने कट्टर वामपन्थी हैं।
कुणाल की लेखनी का जादू यहाँ अपने उत्कर्ष पर है। अपूर्व शिल्प और भाषा को बरतने का एक ख़ास ढब कुणाल ने अर्जित किया है, जिसका आस्वाद यहाँ पहले की निस्बत अधिक सान्द्र है। यहाँ यथार्थ की घटनात्मक विस्तृति के साथ-साथ किंचित स्वैरमूलक और संवेदनात्मक उत्खनन भी है। कहें, कुणाल ने यथार्थ के थ्री डाइमेंशनल स्वरूप को पकड़ा है। कई बार घटनाओं की आवृत्ति होती है, लेकिन हर बार के दोहराव में एक अन्य पहलू जुड़कर कथा को एक नया रुख़ दे देता है। कुणाल ज़बर्दस्त क़िस्सागो हैं और फ़ैंटेसी की रचना में उस्ताद। लगभग दो सौ पृष्ठों के इस उपन्यास में अमूमन इतने ही पात्र हैं, लेकिन कथाक्रम पूर्णतः अबाधित है। बंगाल के गाँव और गँवई लोगों का एक ख़ास चरित्र भी यहाँ निर्धारित होता है, बिना आंचलिकता का ढोल पीटे। आश्चर्य नहीं कि इस उपन्यास से गुज़रने के बाद बाघा, दक्खिना, हराधन, भागी मण्डल, गुलाब, पंचानन बाबू, रघुनाथ जैसे पात्रों से ऐसा तआरुफ़ हो कि वे पाठकों के ज़हन में अपने लिए एक कोना सदा सर्वदा के लिए सुरक्षित कर लें। संक्षेप में एक स्वागतयोग्य उपन्यास निश्चित रूप से वर्तमान युवा पीढ़ी के लेखन में एक सार्थक हस्तक्षेप डालने वाली कृति।SKU: VPG8126319626₹150.00₹200.00 -
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Ae Mere Rehnuma
0 out of 5(0)ऐ मेरे रहनुमा –
तसनीम ख़ान की अनुशंसित कृति ‘ऐ मेरे रहनुमा’ प्रकाशित करते हुए सन्तोष का अनुभव हो रहा है। भारत ही नहीं विश्व की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करनेवाले स्त्री-स्वर का यथार्थ इस उपन्यास की केन्द्रीय भावभूमि है। विशेषकर अल्पसंख्यक समाजों में मुस्लिम स्त्री जीवन की आज़ादी के गम्भीर सवालों को उजागर करता यह उपन्यास सदियों से चलती आ रही पितृसत्तात्मक संरचनाओं का तटस्थ मूल्यांकन करता है।
इस कथा में आधुनिक स्त्री के जीवन के अँधेरों को भी बख़ूबी चित्रित किया गया है। इन अँधेरों से निकलने की छटपटाहट और प्रतिरोध की अभिव्यक्ति उपन्यास को महत्त्वपूर्ण बनाती हैं।
इधर जबकि उपन्यास का कथ्य तफ़सीलों और आँकड़ों से कुछ बोझिल होकर आलोचना के दायरे में है तब तसनीम ख़ान का यह उपन्यास अपनी भाषा की ताज़गी और सहज रवानी के कारण पाठ के सुख से आनन्दित करता है।
लेखिका ने छोटे-छोटे वाक्य और संवादों की स्फूर्ति से उपन्यास को सायास निर्मिति के दबाव से मुक्त कर स्त्री अस्मिता के प्रश्न को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। उम्मीद है पाठक को यह उपन्यास अपने समाज का ही आत्मीय परिसर लगेगा।SKU: VPG9326354844₹187.00₹250.00
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