गूॅजती अनुभूतियाँ भाग-3 (Gunjati Anubhutiyan part-3)
सत्तालिप्सा (Lust of Power) के उन्मत्ता व्यामोह से विभाजित समाज के मानव-मानव की पहचान और उसका गुण-धर्म 'मानवता' और प्यार का विशाल विश्वान्तरित संकुचित होता जा रहा है। विज्ञान के बढ़ते कदम तो आत्मविश्वास बढ़ाते जा रहे हैं किन्तु सर्वमंगलकारी वैज्ञानिक खोजों के ध्वंसात्मक प्रयोग से उत्पन्न संकट देख-समझ कर मन कहने लगता है, "तज कोलाहल की अवनी रे। आवाजें गूंज-गूंज कर जय कहती करती दिखती हैं "कमाए दुनिया यायें हम" के आनन्द में सराबोर जन-जन को, तब प्रेम और वासना के इन्द-धुले में शुलता मानव-जीवन स्वयं उठने-गिरने लगता है एक अदृश्य अन्धकूप में विजयादशमी आदि योध में चते-गाते युवजन भूल जाते हैं । गूँजती अनुभूतियाँ' भाग-तीन भी लिखने का क्रम, जेल से निकलकर घर आने के बाद भी जारी 3 रहा और 'गूँजती अनुभूतियाँ' का भंडार स्वतः भरता रहा। इसमें भी इनके चिन्तन-मनन और इनके मन से उत्पन्न भड़ास ही निकलते रहे। भाव, विचार, अनुभव, संवेदना के कथ्य तथ्य ही प्रत्येक संग्रह में स्वयं सजते रहे सबमें इनका 'स्व' तो है ही, इनसे जुड़ते 'पर' भी स्वतः समाविष्ट होते गए हैं। 'स्व' का 'पर' में और "पर का 'स्व' में समाना, बहुत अच्छा और स्वाभाविक लगता है। प्रत्येक शीर्षक परम्परागत व्यवहारों और मान्यताओं को झकझोर देते हैं। पुनर्मूल्यांकन की जमीन पर पुराने पोधों से नवीन पौधों का विकसित पौधा नजर आने लगता है। उनमें घंटे, कटे, विभाजित व्यवहार, जुड़े और बिन कहे संयोजित नजर आने लगते हैं। "एकजुट समरस नित नय प्रगतिशील मानवता की कहानी" के अद्यतन तन-मन में जितनी भी अनुभूतियाँ इनके भीतर गूंजती रही हैं, वे सब इस रचना की श्रृंखला में सर्वत्र मिलेंगी। सभी शीर्षकों का पठन-पाठन, देश-विदेश की संकीर्ण परम्परागत मान्यताओं को तोड़कर नित नवचिन्तन परम्परा प्रारम्भ करने के लिए बाध्य करता दृष्टिगोचर होता है।
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