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गांव और शहर का समाजशास्त्र (Gaon aur Shahar ka samajshastra)

भारतीय समाज के अन्तर्गत शहरों में ग्रामीण उन्मेष को स्पष्ट करने के लिए ही प्रस्तुत पुस्तक में सामाजिक ढाँचा, सामाजीकरण, सम्बन्धी प्रथ, स्तृत विभाजन आदि में समस्त समाज के भीतर होने वाले उन्मेष अवधारणा को विस्तार से लिखा गया । विचारधारा, परिवार, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं, शिक्षा, दूसरी ओर, इस पुस्तक में विभिन्न समूहों से प्राप्त तथ्यों के आधार पर भी ग्रामीण उन्मेष को विस्तृत विश्लेषण एवं निवेचित है। यह पुस्तक "गाँव और शहर का समाजशास्त्र" उन्मेष अवधारणा को आयोपात समझने मे सहायतार्थ के साथ परिवर्तन एवं विकास के नये व बनेगा | Urban Sociology (1955) पृष्ठ 133 पर वर्गत (Bergal) ने लिखा है, " शहर की सीमा के बाहर एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ ग्रामीण एवं शहरी परिवार इतने घुल-मिल जाते हैं कि उनको शहरी या ग्रामीण क्षेत्र कहना बिलकुल असम्भव हो जाता है। ऐसे घुले-मिले प्रदेश 'शहर' Rurban कहलाते हैं।" दय हम 'सामाजिक क्रियाओं' को ध्यान में रखकर चिन्तन-मनन करते हैं, तब हमें गाँव और शहर में भिन्नता नजर आता है: किन्तु गाँव में रहनेवाला और शहर में रहनेवालों की आपसी अन्तक्रियाओं के फलस्वरूप ही गाँवों में शहरीकरण और शहरों में ग्राम्यीकरण की प्रक्रियाएँ' विकसित होती स्पष्ट दिखाई पड़ती है। ऐसे दोनों प्रक्रियाओं को मिलाकर ही गाँव और शहर के समन्वित रूप का जन्म होता रहता है, जिसे 'नि' महोदय ने ग्राम्यनगरीकरण (Rurbanization) नाम से सम्बोधित किया है। गाँव और शहर एक दूसरे के करीब आते रहे हैं। यह व्यावहारिक एवं सामाजिक सत्य है इससे दोनों समाज की विशेषताएँ और खामियाँ एक दूसरे में प्रवेश करती जाती हैं इसे इस पुस्तक "ग्रामीण-नगरीय सातत्य" के स्वरूप में देखा परखा गया है। क्योंकि 'ग्रामीण-नगरीय सातत्य, आज के 'नित नवप्रगतिशील समाज' की एक ऐसी प्रक्रिण है, जो किसी भी ग्रामीण या शहरी क्षेत्र में स्पष्ट देखी जा सकती है। आज किसी भी घटना को तो हम पूर्णतः ग्रामीण कह सकते हैं और न पूर्णतः शहरी काल-क्रम से सारी ग्रामीण घटनाएँ एक प्रक्रिया के रूप में शहरी स्वरूप धारण कर लेती हैं और शहरी जीवन शैली भी गांवों में प्रवेश कर जाती है। खान-पान, रहन-सहन, पठन-पाठन, व्यापार रोजगार, उत्पादन आपूर्ति विनिमय वितरण याजारू खरीद-बिक्री आदि प्रकार की नवीन दृष्टि से दोनों का गाँव और शहर का एक दसरे के साथ अन्योन्याश्रित सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। व्यावहारिक जीवन में भी हमें ऐसे ढेर सारे क्षेत्र देखने को मिलते हैं, जहाँ ग्रामीण अवस्था के साथ-साथ नगरी अवस्थाएं प्रवेश करतो जाती हैं। ऐसी हालत में भौगोलिक, जनसंख्यात्मक, शैक्षणिक और आर्थिक अन्तर को छोड़कर 'गाँव और शहर का समाजशास्त्र मानव जीवन की कई क्रियाओं और अवस्थाओं में मिला-जुला जर आने लगता है। जाति-उपजाति, धर्म- उपधर्म, प्रदेश, देश, विश्व, अन्तरिक्ष की सीमाएं आज टूटने लगी हैं। सामाजिक अन्धविश्वास आताओं, क्षेत्रीय चन्दा संकीर्ण जीवन-गाथाओं, संकुचित तथा जड़ विचार धाराओं में अतिप्रगतिशील विशालता आती जा रही है।


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Pages : 153
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