दार्शनिक विमर्श (प्रोफ़ेसर नित्यानंद मिश्र स्मृति ग्रंथ) Darshnik Vimarsh (Prof. Nityanand Mishre Smriti Granth) Bihar Darshan Parisad
दर्शनशास्त्र के इतिहास एवं परंपराओं को हम भले ही देश एवं काल खंडों में बांट कर देख सकते हैं लेकिन दर्शन की विषयवस्तु अतीत, वर्तमान एवं शव के बंधनों से परे है। दर्शन को हम परमसत् का तत्वज्ञान (Metaphysics of Reality) कहे या अपरोक्षानुभूति का तत्वज्ञान (Metaphysics of Experience), इसका विषय चरम तत्व या सत्ता ही है जो शाश्वत और चिरंतन होता है। सत्य तो प्राची के हाथों बिका है, न प्रतीची के सत्य पर न तो शंकर का एकाधिकार हैन सुकरात का सर्वाधिकार सत्य तो सादगी और देशकालातीत होता है। अलंकारिक दृष्टि से दर्शनशास्त्र को विद्याओं की रानी कहा जाता है क्योंकि सभी शास्त्रों के मूल में दर्शन का आधार रहता है। चाहे अर्थशास्त्र हो या राजनीतिशास्त्र समाजशास्त्र हो या नृतत्वशास्त्र यहां तक कि विज्ञान एवं व्याकरण का भी कोई न कोई दर्शन होता है। पिछली शताब्दी के मधा में दर्शन को भाषा-विश्लेषण मान लिया गया था। लेकिन अब उसका अवमूल्यन हो चुका है। विचार की स्पष्टता की दृष्टि से भाषा विश्लेषण का महत्व थे और रहेगा लेकिन भाषा विश्लेषण को दर्शन का पर्याय नहीं माना जा सकता। वह दर्शन का साधन है साध्य नहीं। दर्शन केवल विद्याविलास नहीं है केवल शब्द शिल्प नहीं है।
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