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Kahan Hai Manzil (kavya) कहां है मंजिल (काव्य)

कहाँ है मंजिल' : प्रकृति, मृत्यु, बीमारी अमोरी, गरीबी, भूख, भेद-भाव, विकास, खास, बेरोजगारी तथा दरारों के दर्द का गुलाम मानव-समाज के सम्मुख सोचने-विचारने के लिए समतामूलक मन के ढंग से उकेरता-उभारता काव्य है। मानव मन में समाते, मात्र तन की दिग्भ्रमित त्रासदी का दंश झेलता विश्व मानव-समाज; मृत्यु के कराल गाल में समाता जा रहा है, प्राकृतिक तथा कृत्रिम प्रकोपों का शिकार होता जा रहा है। दृश्य दूरी घटती जा रही है, अदृश्य दूरी बढ़ती जा रही है। एक और सीमित जन बहुत ज्यादा समृद्ध होते जा रहे हैं और दूसरी ओर भूखे नंगों, गरीबों दलितों, दमितों, आदिवासियों, स्त्रियों और रोजगारहीन लाचार गरीब जनों की बीमार भारी भीड़ में मानव की पहचान मानवता अकुला- अकुला कर मानव-मानव से कहती है. पूछती रहती है और प्रखर सवाल दागती रहती है, कि आखिर अब क्या है उसकी जिन्दगी की जमीनी सच्चाई और क्या है मंजिल ? 'कहाँ है मंजिल ? प्रजातंत्र के लक्ष्य स्वतंत्रता, समानता प्रातृत्व तथा संह, सौहार्द सर्वमानव-कल्याण की एप्त यदि सबको समान रूप से नहीं होती और चन्द चतुर जन ही ज्यादा समृद्ध और अधिक जन दलित, दमित, गरीब और भूखे पेट ही रह जाते हैं, तो फिर यह सोचने के लिए बाध्य ही हो जाना पड़ता है कि अब कही है मोनल'? और... क्या नयी नस्ल में और खुद में यह आप नहीं महसुंसते कि ऐसी रचनाओं की ही जरूरत आज विश्व मानव समाज को है।


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Pages : 153
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