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अंगरेजी राज में संथालों के संघर्ष का इतिहास (Angreji Raj Mein Santhalon Ke Sangharsh Ka Itihaas)

अंगरेजी राज में बिहार संथालों के संघर्ष का इतिहास हिन्दी भाषा में प्रथम प्रकाशन है। निष्कर्ष और ग्रंथसूची के अतिरिक्त छह अध्यायों में विभाजित यह ग्रंथ विचारधारा एवं व्याख्या की दृष्टि से क्रांतिकारी प्रस्तुति है। इसकी खासियत यह है कि इसके लेखक स्वयं अपने जीवन-संघर्ष के अंतर्गत संथालों की सामाजिक और आर्थिक त्रासदियों के गवाह रहे हैं। भलेही आज संथालों की बस्तियों का विभाजन झारखण्ड और बिहार के राज्यों के बँटवारा के साथ दोनों क्षेत्रों में सम्पन्न हो गया, फिर भी उनकी मानसिकता और अतीत की विरासतों में समानता है और उनके शोषकों और उपद्रवकारियों (दिक्कुओं) के समानान्तर अस्तित्व जीवन्त हैं। लेखक ने गहराई के साथ संथालों के इतिहास-सरोवर की छानविन की है, उनके सामाजिक एवं आर्थिक अवस्थाओं का समालोचनात्मक विश्लेषण किया है। संथालों की भू-राजस्व एवं काश्तकारी व्यवस्था बिहार के किसान आन्दोलन के इतिहास में सर्वाधिक यंत्रणामुलक संघर्ष को दर्शाता है जिसकी ओर सुर्खियों में आनेवाले किसान आंदोलन के नेताओं का रूझान संभवतः अपेक्षाकृत कम रहा है। इसपर सवालों का पहाड़ खड़ा किया जा सकता है। प्रशसनिक व्यवस्था के स्तर पर जो भी प्रयास हुए आज इस विषय नये ढंग से सोचने, समझने और फौलादी कलम को उठाने को प्रेरित करते हैं लगता है कि वास्तविक समर अभी भी शेष है। यह सोध्यथ अवेक भावा शोधकार्यों की ओर अग्रसर होने के लिए चुनौतीपूर्ण आमंत्रण देता है। आदिम जनजाति के होते हुए भी पहाड़िया और संथाल समुदाय के लोगों के रहन-सहन खान-पान बात व्यवहार में बहुत भिन्नता थी। पहाड़ियों को पर्वत प्रिय था और संथालों को पर्वत की तराई या तलहटी। संथाल जंगल काटकर खेती और अपने बासस्थान के लिए जगह निकालते थे और वहाँ से 'पहाड़िया' को खदेड़कर पर्वत-शिखर की ओर ढकेल देते थे जिस प्रकार पहाड़िया संथालों के शोषण से आतंकित होकर पर्वतशिखरों पर निवास करने में भी अशान्ति का अनुभव करते थे उसी प्रकार संथाल बंगाली जमीदारों और भारी ब्याज लेकर कर्ज देने वाले दिक्कू महाजनों के शोषण से भयाक्रान्त थे। व्याज के बदले स्वयं या परिवार के सदस्य को चे आजोवन बन्धक बनाकर दिक्कुओं का दास बनाकर रखते थे। कर्जदाता महाजन कर्ज का गलत हिसाब रखकर निरक्षर संथालों को सदा छला करते थे। कर्ज के व्याज में ही उनकी फसल चली जाती थी, मवेशी भगा लिये जाते थे पर व्याज की राशि सुरसा की भांति बढ़ती ही जाती थी।


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