दलित उद्भव एवम् विकास (Dalit Udhbhav Avm Vikas)
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने दलितों के उद्भव एवं विकास की विस्तृत चर्चा की है । दलितों को अद्भुत, अस्पृश्य एवं मन्छ कह जाने की एक लम्बी परंपरा रहा है । इनका उद्भव वर्णाश्रम व्यवस्थ के प्रारंभिक चरणों म ही हुआ है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक दलित समाज अर्थव्यवस्था का आधार स्तंभ रहा है। भवननिर्माण, कला 1 कृषि, पशुपालन, विभिन्न काश्तकारी (चमहा, मिट्टी, लकड़ी, कपड़ा इत्यादि) तथा कलाओं से इनका सीधा संबंध रहा है । समाज की अर्थव्यवस्थ में दलितों को भूमिका का संख्य शिलंगण लेखक द्वारा प्रस्तुत किया गया है । दलितों के बीच प्रचलित रूढ़िवादी परंपराओं की चर्चा भी पुस्तक में प्रस्तुत की गई है। प्राचीन समाज में दलितों के बीच शिक्षा के विकास की चर्चा रामायण,महाभारत एवं अन्य ग्रंथों के रचयिता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस मिथक को दूर करने की कोशिश की गई है कि प्राचीन धर्मग्रंथों के रचयिता केवल सवर्णों के बीच से आए है। यह पुस्तक दलित समाज को समग्रता में समझने का एक सराहनीय प्रयास है। पुस्तक की भाष सरल एवं रोचक है। यह पुस्तक दलित समाज के प्रति संवेदनशील नागरिकों, सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं तथा शोधार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी साबित हो सकती है। आधुनिक काल में भी उपेक्षा के शिकार इस वर्ग द्वारा विकास के लिए किये गये संघ को भी दर्शाया गया है। आजादी के पूर्व एवं बाद इनके विकास के लिए क्रियाशील राजनैतिक, गैर-राजनीतिक स्वयंसेवी संस्थओं तथा प्रमुख समाज सुधारकों के योगदान की विस्तृत व्याख्या की गई है। आजादी के बाद इनके विकास एवं गतिशीलता की समीक्षा भी प्रस्तुत की गई है। दलित समाज की स्थिति को सुधारने हेतु किये गये सरकारी प्रयासों का भी विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।
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Pages : | 153 |
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