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प्राचीन भारत का सामाजिक एवम् आर्थिक इतिहास (Prachin Bharat ka Samajik Avm Arthik Itihaas)

प्राचीन भारतीय समाज स्वरूप निरन्तर बदलता रहा वैदिककाल में समान का जो स्वरूप था. वह समय के साथ अनेक कारणों से बदलता गया। प्रारम्भ में आर्य तीन वर्णों में विभाजित थे, परन्तु उत्तर वैदिककाल में चौथे वर्ण को भी वर्ण-व्यवस्था में सम्मिलित किया गया। वैदिकोंत्तर काल में वणों के अन्तर्गत जाति प्रथा का विकास हुआ। कालान्तर में समाज का एक वर्ग अस्पृश्यय बन गया। इन सभी का अध्ययन प्राचीन भारतीय सामाजिक इतिहास का प्रमुख विषय है। इसके अतिरिक्त विवाह संस्कार, नारी की दशा, शिक्षा, दास प्रथा आदि विषयों का भी अध्ययन किया गया है अर्थात सामाजिक इतिहास की क्षेत्र अन्यन्त व्यापक है। शास्त्रकारों ने विभिन्न सामाजिक समस्याओं को सम्बन्ध के लिए नियमों का उल्लेख किया है। आधुनिक विद्वाना ने भी इनको व्याख्या समुचित ढंग से करने की वेष्टा की है। इन सब का समावेश इस पुस्तक में करने का प्रयास किया. गया है। इसी प्रकार प्राचीन भारतीय आर्थिक इतिहास का क्षेत्र भी व्यापक है। इसके अन्तर्गत कृषि, पशुपालन आदि का अध्ययन किया गया है। प्राचीन भारतीय समाज का स्वरूप निरन्तर बदलता रहा है। ऋग्वैदिककाल में समाज को जो रूप-रेखा थी वह समय में साथ बदलती गई। शिक्षा, विवाह, जाति प्रथा. अस्पृश्यता आदि महत्वपूर्ण विषयों पर शास्त्रकारों ने अपने मत दिए हैं। अतः सामाजिक इतिहास का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। ऋग्वैदिक आर्य आरम्भ में तीन वर्णों में विभाजित थे परन्तु उत्तर वैदिककाल में चौथे वर्ण को भी वर्ण-व्यवस्था में सम्मिलित किया गया। वैदिकोत्तरकाल में इन वर्णों के अन्तर्गत जातिगत विभाजन हुआ। अतः वर्ण-व्यवस्था ने जाति प्रथा का रूप ले लिया। समय के साथ-साथ समाज में विभिन्न समस्याएँ उत्पन्न होती गई जिनका समाधान समय-समय शास्त्रकारों ने किया। इन्हीं का परिणाम था अस्पृश्यों का उदय समाज के साथ प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था में भी विकास दिखाई पड़ता है। विभिन्न प्रकार के व्यवसायों. उद्योग-धंधे, श्रेणी जैसी संस्था तथा कर व्यवस्था का विकास हुआ। इसलिए प्राचीन भारत का आर्थिक इतिहास का क्षेत्र भी व्यापक है। प्रस्तुत पुस्तक में मैंने प्राचीन भारत के सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास, दोनों का अध्ययन करने का प्रयास किया है।


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Pages : 153
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