परमतत्व या ब्रह्म कीअवधारणाएँ (Paramtatv Ya Bhram Ki Avdharnayen)
अब तक परमतत्व या ब्रहा सम्बन्धी विचार पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं परन्तु अभी तक ऐसी समालोचनात्मक पुस्तक का अभाव रहा है जो शंकर और रामानुज के ब्रह्म सम्बन्धी विचार का तुलनात्मक अध्ययन सूक्ष्मता की गहराई से प्रकट करता ही, इस दिशा में यह पुस्तक एक लघु प्रयास है। यहाँ शंकर और समाज के अलावा अर्थ, बंद, आरण्यक, उपनिषद् गीता एवं पुराण में वर्णित ब्रहा की अवधारणा. प्राचीन दार्शनिकों एवं परम्परागत भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों में परमतत्व की अवधारणा की चर्चा की गई है। प्रस्तुत पुस्तक का विषय है परमतत्व या ब्रह्म की अवधारणाएँ। परमतत्य या सम्बन्धी विचार पर अब तक अनेक ग्रंथ लिखे जा चुके हैं, परन्तु अभी तक ऐसी समालोचनात्मक पुस्तक का अभाव रहा है, जो आचार्य शंकर और रामानुज के सम्बन्धी विचार की समानता और मतभेद को सूक्ष्मता की गहराई से प्रकट करता हो। इस दिशा में मेरा पुस्तक एक लघु प्रयास है। ब्रह्मसूत्र के भविष्यकारों में शंकर और रामानुज का भाग्य हो भारतीय दार्शनिक जगत में सबसे अधिक विख्यात हुआ। शंकर के दर्शन को "अद्वैतवाद" और समाज के दर्शन को "विशिष्टतद्वैत" कहा जाता है। ये दोनों दार्शनिक ब्रह्म को ही परम तत्व मानते हैं। वास्तव में ब्रह्म की व्याख्या एक ऐसा जटिल प्रश्न है जिसके विषय में "समझत बनाई न जाई बखानी" की उक्ति चरितार्थ होती है। वस्तु जगत का आदि अन्त और आधार ब्रह्म ही है। इस वैविध्यपूर्ण जगत की व्याख्या करते समय कई ऐसे प्रश्न उपस्थित होते हैं जिनका समाधान आसान नहीं है। चिन्तन प्रक्रिया का जो सारभूत तत्व प्रकाशित हुआ उसे परमतत्व की संज्ञा दी गई। यह माना गया कि एक ही तत्व की अभिव्यक्ति यह संसार है। इसमें भी विवादास्पद प्रश्न यह उठा कि अभिव्यक्ति हो परमतत्व है, या अभिव्यक्ति में परमतत्व है, या परमतत्व निमित्त मात्र है। इस विचार प्रक्रिया में अशुभ इत्यादि समस्याएं अनुत्तरित रह जाती है, जिसका उत्तर शंकराचार्य ने मायावाद की कल्पना से दिया है। उनके अनुसार अभिव्यक्ति परमतत्व का आभासमात्र है, पर शंकर का यह शुष्क बौद्धिक समाधान रामानुज आदि विचारकों को अव्यावहारिक लगा और उन्होंने अभिव्यक्ति की अस्थार्थिता के प्रश्न चिन्ह को मिटा दिया। इस पुस्तक में इन्हीं दो महान दार्शनिकों के चिन्तन मूल्यों में झाँकने का प्रयास किया है ।
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Pages : | 153 |
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