बिहार में भूमि संघर्ष (Bihar mein Bhumi Sangharsh)
प्रस्तुत पुस्तक आजादी से ठीक पहले और आजादी के बाद बिहार में भूमि अधिकार के लिए किसानों, खेत मजदूरों और गृहविहीनों के संघर्ष की एक विस्तृत एवं रोचक पटकथा है। भूमि के केंद्रीकरण की समस्या को दूर करने के लक्ष्य से बने भूमि सुधार कानूनों के क्रियान्वयन के प्रति सरकारों की उदासीनता को नोट करता यह पुस्तक भूदान आंदोलन के सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक पहलुओं और उसकी सीमाओं को भी सामने लाता है। बिहार में मुख्य रूप से कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में निरंतर चले भूमि संघर्ष के विभिन्न पहलुओं की समीक्षात्मक व्याख्या भी इस पुस्तक में दर्ज है। पुस्तक में बिहार के 18 जिलों में चले महत्त्वपूर्ण भूमि संघर्ष के विवरणों, संघर्ष में शामिल लाभार्थियों एवं नेतृत्वकारी जमात की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की पड़ताल के साथ-साथ इस संघर्ष से ग्रामीण बिहार में आये सामाजिक आर्थिक बदलावों के स्वरूप को भी रेखांकित किया गया है। विषय पर उपलब्ध साहित्यिक स्रोतों के अतिरिक्त भूमि संघर्ष में शामिल लाभार्थियों एवं कार्यकर्ताओं से प्रश्नावली एवं साक्षात्कार के माध्यम से जुटाए गए विवरणों पर आधारित यह पुस्तक बिहार में हुए भूमि संकर्ष के विभिन्न पहलुओं की सूक्ष्म सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्याख्या प्रस्तुत करता है। विषय की बोझिलता को कम करने के उद्देश्य से कथा प्रसंगों के माध्यम से भूमि संघर्ष के विभिन्न स्वरूपों को सामने लाता यह पुस्तक बिहार के ग्रामीण सामंती कृषि सम्बंधों को समझने की नयी दृष्टि प्रदान करने के साथ-साथ सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं एवं इस विषय पर भविष्य में होने वाले शोधे-अध्ययनों के लिए मौलिक आधार- सामग्री मुहैया करायेगा। भारत में भूमि का प्रश्न प्रारंभ से एक केंद्रीय प्रश्न रहा है और आज भी है। प्राचीन भारत की कृषि अर्थव्यवस्था ने जिस सामंती भूमि सम्बंधों को जन्म दिया उससे भूमि के केंद्रीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई और मध्यकालीन भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था में वह कायम रहा। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने भारतीय सामंतवाद से स्थायी राजनीतिक समझौता में अपना सुरक्षित आर्थिक लाभ देखते हुए पूर्व से चले आ रहे सामंती कृषि सम्बंधों में कोई मौलिक बदलाव या छेड़छाड़ करना उचित नहीं समझा। नतीजतन भूमि के केंद्रीकरण की प्रक्रिया और भी तेज ही होती चली गयी। किसान भूमिहीन होते चले गए। आजादी से ठीक पहले स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में किसान सभा ने बिहार में बटाईदारों को भूमि पर अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष प्रारंभ किया। आजादी के बाद संविधान में दर्ज सामाजिक-आर्थिक बराबरी के मूल्यों के आलोक में बिहार में भी कृषि के केंद्रीकरण को कम करने के उद्देश्य से भूमि सुधार कानून बने। सरकारों की जमींदारपरस्त वर्गीय प्रतिबद्धताओं ने भूमि सुधार कानूनों की सरजमीं पर लागू नहीं होने दिया। भूमि के केंद्रीकरण के खिलाफ कानूनों के आलोक में, गृह विहीनों और खेत विहीनों को आवास और जोत की जमीन पर अधिकार दिलाने के लिए बिहार की कम्युनिस्ट पार्टियों ने आंदोलन और संघर्ष का रास्ता अपनाया। आजाद भारत में भूमि के केंद्रीकरण के खिलाफ आर्थिक बराबरी के लिए शुरू हुआ यह एक बुनियादी संघर्ष था। 'जोतने वालों को जमीन' का नारा उस दौर के संघर्ष का केंद्रीय नारा बन गया।
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