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भारतीय नारी Bhartiya Naari (From the beginning to 2000 AD)

प्रस्तुत संकलन में बहुस्तरीय सामाजिक स्थितियों में नारी के विविध प्रतिमानों की विवेचना की गई है। भारतीय परम्परा में नारी की छवि, नारीत्व की अवधारणा, प्रतीक और प्रतिमानों के साथ ही अनुभूत आदर्शों का उल्लेख है। मनुस्मृति के समय में स्वतन्त्र नारी की छवि को संभ्रान्त समाज में सम्मान नहीं दिया गया है। समय के साथ पर्दा एकांतता और बालविवाह के कारण मध्यकाल में आर्थिक स्वतंत्रता और समानता की मांग के फलस्वरूप स्त्री पुरुष के बीच प्रतिद्वन्द्विता की प्रवृत्ति बढ़ रही है। प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय नारी के प्राचीन, मध्ययुगीन, आधुनिक, भविष्य एवं वर्तमान स्वरूप समेत नारी के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व बौद्धिक विषयों पर विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला गया है। यह रचना ग्रन्थ हिन्दी में एम.ए. के विद्यार्थियों के लिए पाठ्यक्रम पर आधारित पहला प्रयास है। इस रचना में नारी की कोमलतम भावनाओं व भारतीय संस्कृति एवं समाज तथा राष्ट्र की प्रगति एवं नवनिर्माण में नारी योगदान समेत उनकी शूरता वीरता, दृढ़ता व विद्वता का बड़ा ही हृदयकारी चित्रण हुआ है। यह पुस्तक एम.ए. इतिहास के विद्यार्थियों के लिए विशेष उपयोगी साबित होगी । इसके अलावा भारतीय संस्कृति और समाजशास्त्र के लिए विशेष उपयोगी साबित होगी इसके अलावा भारतीय संस्कृति और समाजशास्त्र के विद्याथियों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी। पुरातन काल से नारी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था की धुरी रही है। इतिहास साक्षी है. नारी किसी भी पुरूषों से पीछे नहीं रही है। नारी ने अपनी कार्य कुशलता, दक्षता व पौरुषत्व के बल पर यह सिद्ध कर दिया है कि यदि वे चाहें, एक बार कर ले तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता एवं विशिष्टता सिद्ध कर सकती है। भारतीय नारियों में वह शक्ति अभी भी मौजूद है. जिसे पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। नारी शोषण की समाप्ति व अत्याचार का खात्मा नारी चेतना व नारी जागरण से ही सम्भव है। नारी चेतना के प्रस्फुटन से ही पुरूष प्रधान समाज के वर्चस्व की समाप्ति होगी। नारी समाज में परिवर्तन से ही भारतीय समाज में परिवर्तन आयेगा। नारी और नर दो वर्ग या दो पक्ष नहीं है, बल्कि एक ही सत्ता के दो पहलू है दोनों को समान अधिकार समेत विकसित, पुष्पित व पल्लवित होने का अवसर प्रदान करना आज समय की अनिवार्यता है। दोनों की उपयोगिता व महत्ता को स्वीकार किया जाना चाहिए। कोई भी राष्ट्र स्त्री व पुरूष में से किसी एक वर्ग द्वारा समुन्नत नहीं हो सकता। नारी भारतीय समाज की आधी जनसंख्या है। नारी समाज की आधी शक्ति भी है। यह केवल सन्तान सम्पादिक नहीं बल्कि पालिक व संचालिका भी है। नारी ने समय-समय पर धर्म रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति भी दी है। पुरुष प्रधान समाज की बर्बरता की वजह से वह अपनी पहचान खोती जा रही है पुरुष वर्ग का नारी वर्ग के प्रति संकुचित धारणाओं की वजह से यह स्वावलम्बन की ओर कदम बढ़ाने का साहस नहीं जुटा पा रही है। अनगिनत कुरीतियाँ गूढता व अन्ध विश्वास उनकी स्वतन्त्रता में बाधक है। मध्यकालीन भारत और विशेषरूप से राजस्थान के सन्दर्भ में स्त्रियों की दयनीय स्थिति का वर्णन तथा भिन्न साहित्य कला और स्थापत्य के क्षेत्र मैं महिलाओं के योगदान को रेखांकित करती है। उनके अनुसार पितृसतात्मक सामाजिक सरधना और पर्दे की प्रथा होते हुए भी स्त्रियाँ कला, साहित्य और लोकहितकारी गतिविधियों में गहरी रुची लेती थी। इस पुस्तक में मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से मूल्यांकन किया गया है। इस संदर्भ में लेखिका ने आधुनिक मुस्लिम समाज में स्त्रियों के वैवाहिक, पारिवारिक एवं सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकारों के सैद्धान्तिक और व्यवहारिक पक्ष का अन्तर पष्ट किया है।


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Pages : 153
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