भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का वैचारिक अन्तर्द्वन्द्व (Bhartiya rashtriy Aandolan ka vaicharik antardwandwa)
1857 से 1922 ई० क प्रमुख घटना क्रम को केन्द्र में रखकर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की मूल प्रवृतियों के साथ अनुषंगी धाराओं और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के वर्गीय चरित्र एवं बदलते वर्गीय चरित्र को चिन्हित करने का प्रयास प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है। इस पुस्तक में राष्ट्रीय आन्दोलन की सीमाओं का जिक्र हैं, और इन सबके बीच उभरता राष्ट्रीय आन्दोलन को चिन्हित करने के साथ साथ संघर्ष के आयाम; विशेषकर वैचारिक आयाम को रेखांकित करने का प्रयास है। प्रस्तुत अध्ययन भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की मूल प्रवृत्तियों और वर्गीय चरिष को चिकित करने का प्रयास है। 1857 के बाद भी और पूर्व भी, औपनिवेशिक शासन के प्रति आक्रोश पनपता रहा है, लेकिन पहली बार 1857 में एक राष्ट्रीय स्वर सुनने को मिलता है। यह स्वर वर्गों और समूहों का संयुक्त स्वर था। इसमें विभिन्न तबकों में व्याप्त आक्रोश को स्वर और धर्म से ऊपर उठकर लोगों ने इसमें शिरकत किया। प्रस्तुत अध्ययन में विभिन्न आक्रोश और उसकी अभिव्यक्ति को चिन्हित करने का प्रयास किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन में 1922 ई तक के काल को ही समाहित किया गया है, तब तक राष्ट्रीय आदोलन प्रौढ़ हो चुका था। विभिन्न प्रतियों अपने टकराहटों के बिन्दुओं को चिन्हित कर चुका था और राष्ट्रीय आन्दोलन की खातिर आपसी अन्तर्विरोधों को दबा दिया था। प्रथम अध्याय में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के वर्गीय चरित्र और बदलते वर्गीय चरित्र को चितित करने का प्रयास है। द्वितीय अध्याय में संघर्ष के आयाम; विशेषकर वैचारिक आयाम को रेखांकित करने का प्रयास है। अध्यन के क्रम में 1905 के वर्ष को विशेष रूप से चिन्हित किया है, 1905 में औपनिवेशिक शासन ने राष्ट्रीय आंदोलन को सघनता को बुद्ध करने के उद्देश्य बंग-भंग का प्रस्ताव पारित किया, नित औपनिवेशिक शासन का यह दाव उल्टा पड़ गया। राष्ट्रीय आंदोलन का मुखर हुआ में इस सम्पूर्ण प्रसंग को समेटने का प्रयास किया गया है। प्रथम विश्वयुद्ध के काल में जहाँ औपनिवेशिक शासन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कई अन्तर्दन्द्र से जूझ रहा था, वही भारतीय राष्ट्रीय को भी अपने स्टैंड को लेकर प्रश्न प्रतिप्रश्न के दायरे में आ गई थी। आंदोलनों की राह छोड़कर स्वजिक सुधार को प्रथम देने के कारण किमय में और बाद के लेखन में भी विवादों से बच नहीं पाई। चीधे आध्याय में इन की है। अगले अध्याय में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की परिस्थितियों पर विचार किया गया है। अंतिम अध्याय में आंदोलन के मंदगति और इसके संभावित कारणों की चर्चा है। असहयोग आंदोलन से साइमन कमीशन तक के काल को प्रसंग उल्लेख किया गया हैं
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Pages : | 153 |
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