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लोकदेवों-सिद्धों संतों की कथा- व्यथा (Lokdevon-Sidhon Santon Ki Katha-Vyatha)
लोकदेवों और सिद्धों का सत्य अनंत है। वह किसी एक व्यक्ति, जाति, राष्ट्र, पंथ या संप्रदाय विशेष में आबद्ध नहीं है। उसे किसी एक सीमित या परिवद्ध दृष्टि से समझ पाना कठिन है। भला जो अनंत है, वह शब्दों की क्षुद्र परिधि में कैसे समाहित हो सकता है। लोकदेवों और सिद्धों ने मानव जाति को पुरुषार्थ प्रधान कर्म दृष्टि दी। उनका कर्मवाद भाग्यवाद नहीं है, अपितु भाग्य का निर्माता है। उन्होंने कहा- 'मानव किसी प्रकृति या ईश्वरीय शक्ति के हाथ को कोई विवश लाचार खिलौना नहीं है । वह कठपुतली नहीं है जिसके जी में जैसा आये, वैसा उसे नवाये । वह अपने भाग्य का स्वयं स्वतंत्र विधाता है। लोकदेवों और सिद्धों का कर्म सिद्धांत मानव की कोई विवशता नहीं है, वास्तव में वह महान- पुरुषार्थ है, जो मानव को अंधकार से प्रकाश की ओर, कदाचार से सदाचार की ओर सतत गतिशील होने की नैतिक प्रेरणा देता है। लोक देव और सिद्ध जन शरीर नहीं, आत्मा हैं नीचे दबे हुए लोक देव और सिद्धजन शरीर नहीं, आत्मा हैं, अतः उनका धर्म भी शरीराज्ञित नहीं, आत्मारित है। अनेक विकारी परतों अपने शुद्ध एवं परम चैतन्य का शोध ही लोक देवों की धर्म पर साधना है। लोकदेवों और सिद्धों का धर्म जीवन विकास की एक बाह्य निरपेक्ष आध्यात्मिक प्रक्रिया है, अत: वह एक शुद्ध धर्म है, क्रियाकांड नहीं, धर्म एक ही होता है, अनेक नहीं। अनेकत्व क्रियाकांड पर आधारित होता है। चूँकि क्रियाकांड देश, काल और व्यक्ति की बदलती परिस्थितियों से संबंध रखता है। फलत: वह अशाश्वत होता है, जबकि धर्म शाश्वत सत्य है। वह नया पुराना जैसा कुछ नहीं होता । सनातन धर्म की भाषा में धर्म और क्रियाकांड के पार्थक्य को समझना हो, तो उसे निश्चय और व्यवहार के रूप में समझा जा सकता है।
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