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वैदिक शासन व्यवस्था (Vaidik shasan vyavastha)

वैदिक शासन व्यवस्था प्रस्तुत पुस्तक इसमें लेखक ने वैदिक शासन व्यवस्था पर अबतक हुए शोध कार्यों एवं आलेखों का अध्ययन कर नई तथ्यों को उजागर करने का प्रयास किया है। पुस्तक पाँच अध्यायों में विभक्त । प्रथम अध्याय में पूर्व कार्यों की समीक्षा एवं वैदिक शासन व्यवस्था की महता बतायी गयी है। तत्कालीन संक्षिप्त राजनैतिक व्यवस्था द्वितीय अध्याय की विषयवस्तु है । राजनीतिक दशा- राज्य में राजा की स्थिति वैदिक गुण आदि का तृतीय अध्याय में समालोचनात्मक अध्ययन है। चतुर्थ अध्याय में सभा समिति, विदथ आदि शासन संस्थाओं का विस्तृत विवरण किया गया है। राजनीतिक संगठन-राज्याभिषेक रही संस्कार आदि पंचम अध्याय में वर्णित है। संपूर्ण पुस्तक नई तथ्यों पर आधारित मौलिक ग्रंथ के श्रेणी में हैं। कई मामलों में तो यह पुस्तक आज भी प्रासंगिक है। वैदिक इतिहास की परंपरा सुदीर्घ रही है, जिसके अनेक वैदिक ग्रंथ यथा द नुर्वेद सामवेद, अथर्ववेद, शपथब्राह्मण, ऐतरेयब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद एवं आदि गवाह हैं। इन ग्रंथों के सूक्ष्म अध्ययन यह दर्शाता है कि पशुचारण जनसमूहों के स्वतंत्र विचरण की प्रक्रिया से व्यवस्थित महाजनपदों में प्रवर्तन भी बहुत बड़े कालावध की घटना रही होगी। यद्यपि विद्वानों ने वैदिक युग को 1500 B. C. से 600 8. C. के बीच माना है, लेकिन इस तथाकथित कालावधि में भी अन्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रियाकलापों के अतिरिक्त राजनीति एवं शासन व्यवस्था से संदर्भित अनेक संस्थाओं के उद्भव एवं विकास दृष्टिगत होते हैं। आरंभिक काल में जब वैदिक आर्य पशुचारक जनसमूह थे, उस काल में निश्चित प्रशासनिक संस्थाओं की आवश्यकता उतनी अधिक नहीं रही होगी। यद्यपि इस काल में 'विस' की चर्चाएँ हैं, जहाँ अन्य सभी सामाजिक क्रियाकलापों के साथ ही राजनैतिक चर्चाएँ भी होती थीं, जहाँ राजन एवं पुरोहित का वर्चस्व था। राजन् पुरोहित के से न केवल युद्ध को विजित करता था, अपितु अपने सभी प्रकार के नेतृत्वपरक कार्यों में संपूर्ण जन का रंजन अथवा मनोरंजन भी करता था। इसके अतिरिक्त सभा समिति ए परिषद आदि संस्थाओं के राजनैतिक गतिविधियों के उल्लेख हमें प्राप्त हैं। इन संस्थाओं के सदस्यों की योग्यता काफी उन्य होती थी व या तो काफी विद्वान होते. अपने-अपने व्यवसायों में सिद्धहस्त होते थे ।


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Pages : 153
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