Shopping Cart


Return To Shop
View Cart

विद्यापति पदावली में भक्ति का सामाजिक संदर्भ (Vidyapati Paddavali Mein Bhakti Ka Samajik Sandharv)

प्रस्तुत पुस्तक में विद्यापति पदावली की सामाजिक एवं काव्यात्मक सार्थकता को भक्ति आंदोलन की पृष्टभूमि में समझने की कोशिश की गई है। भक्ति आंदोलन एक ऐसा समग्र सांस्कृतिक आंदोलन था जिसने एक तरफ जहाँ सामंती समाज-व्यवस्था द्वारा निर्मित अमानवीय मूल्यों को चुनौती देने का काम किया है, कुछ दूर तक तोड़ा भी है, वहीं दूसरी तरफ प्रगतिशील मानवीय मूल्यों की स्थापना में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। विद्यापति का काव्य भी इससे विलग नहीं है। विद्यापति के काव्य की विशिष्टताएँ भक्ति आंदोलन की विशिष्टताएँ हैं। शायद इसी कारण रामविलास शर्मा ने उन्हें यथार्थवादी घोषित करते हुए लिखा है "यह कहना अधिक उचित होगा कि उत्तर भारत में जो नवजागरण के साहित्य का प्रचार-प्रसार हुआ, उसके अग्रदूत विद्यापति है।" साहित्य शून्य में जन्म नहीं लेता है, वह वास्तविक सामाजिक परिवेश में रहने वाले व्यक्ति की रचना होती है, एवं व्यक्ति अपनी चतुर्दिक परिस्थितियों से अप्रभावित नहीं रह सकता। अतः निश्चय ही रचनाकार की रचनाशीलता का कोई ठोस आधार होता है, भले ही उसकी पहचान मुश्किल हो, क्योंकि महान साहित्यकार अपनी प्रतिभा के बल पर रचना की सामाजिकता का विलय कलात्मकता में इस प्रकार कर देता है कि दोनों के बीच विभेदक रेखा खींचना कई बार असंभव जान पड़ता है। 'भक्ति' मानव हृदय का धर्म है। यह मानव हृदय की सबसे उदात वृति है, जो भावना के पातल पर सबको समान मानती है। जाहिर है, भक्ति भावना की यह व्यापकता और लोकोन्मुखता भक्ति-आन्दोलन की देन है। क्योंकि रामानन्द ने सामंती व्यवस्था की प्रमुख सामाजिक विशेषता जाति प्रथा को, जिससे नारी की पराधीनता की समस्या भी जुड़ी हुयी श्री, भक्ति के लिए व्यर्थ और अस्वीकार्य बना दिया। उनका सरल मंत्र था : जात-पांत पूछे नहीं कोई, हरि का भजे सो हरि का होई। यह सिद्धांत कि ईश्वर के सामने सभी मनुष्य समान हैं, चाहे वे ऊँची जाति के हों या नीची जाति के, भक्ति आन्दोलन का केन्द्र न् है। इस प्रकार इस महान आन्दोलन ने जन-संस्कृति के निर्माण के साथ- साथ सामंती दमन और उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष चलाने का मार्ग भी प्रशस्त किया। भक्ति काव्य' इसी उदात भक्ति भावना की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है, जिसमें लोकजीवन के यथार्थ, लोक के कष्ट, पोड़ा,दुख-दर्द, हर्ष उल्लास और उसको इच्छा-आकांक्षा की अभिव्यक्ति हुयी है 'भक्ति' मानव हृदय का धर्म है। यह मानव हृदय की सबसे उदात वृति है, जो भावना के पातल पर सबको समान मानती है। जाहिर है, भक्ति भावना की यह व्यापकता और लोकोन्मुखता भक्ति-आन्दोलन की देन है। क्योंकि रामानन्द ने सामंती व्यवस्था की प्रमुख सामाजिक विशेषता जाति प्रथा को, जिससे नारी की पराधीनता की समस्या भी जुड़ी हुयी श्री, भक्ति के लिए व्यर्थ और अस्वीकार्य बना दिया। उनका सरल मंत्र था : जात-पांत पूछे नहीं कोई, हरि का भजे सो हरि का होई। यह सिद्धांत कि ईश्वर के सामने सभी मनुष्य समान हैं, चाहे वे ऊँची जाति के हों या नीची जाति के, भक्ति आन्दोलन का केन्द्र न् है। इस प्रकार इस महान आन्दोलन ने जन-संस्कृति के निर्माण के साथ- साथ सामंती दमन और उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष चलाने का मार्ग भी प्रशस्त किया। भक्ति काव्य' इसी उदात भक्ति भावना की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है, जिसमें लोकजीवन के यथार्थ, लोक के कष्ट, पोड़ा, दख-दर्द, हर्ष उल्लास और उसको इच्छा-आकांक्षा की अभिव्यक्ति हुयी हैु


( No Reviews )

₹ 170 ₹181

181

No Cancellation
No Returnable
Product Details :
Pages : 153
Made In : India

Related Products



(1203 Reviews )