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वीर लोरिक-चंदा लोक-गाथा (Veer loric Chanda Lok Gatha)

लोककाव्य वाचिक रूप में हजारों वर्षों से भारतीय जनजीवन को अनुप्राणित करता रहा है। बीसवीं सदी में लोककाव्य का मुद्रण होने लगा। अब तो लोककाव्य वाधिक से अधिक मुद्रित रूप में सबके समक्ष आ रहा है। इसकी महता स्पष्ट हो रही है। 'लोरिकायन' हिन्दी भाषी क्षेत्र का महत्वपूर्ण लोककाव्य रहा है। यह याचि रूप में प्राप्य ही नहीं, कण्ठस्वर में ही जीवित रहा है। इसने लोरिक ऐसे महाने जननायक को उसके शौर्य, शील तथा प्रेम के संगम पर अवस्थित किया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'पुनर्नवा' नामक ऐतिहासिक उपन्यास में सम्राट चन्द्रगुप्त के समय में लोरिक यानी आर्यक गोपाल के प्रेममय जीवन और चंदा के पुनर्विवाह की समस्या को जीवंत रूप में रखा है। परन्तु लोककाव्य- लोरिकायन में लोरिक का समय अति प्राचीन माना गया है। लोरिक एक विशिष्ट मल्लवीर और युद्धवीर के रूप में अलौकिक शक्तियो से परिपूर्ण चरित्र है। यह यदुवंश यादववंश का प्रतिष्ठित नायक है जिसके शौर्यपूर्ण चरित्र की प्रतिष्ठा स्वर्ग से पाताल तक रही है। ऐसे महान चरित्र के लोककाव्य को गद्यशैली की बृहत् कथा को आइन रोचकता के साथ प्रस्तुत करना सारस्वत साधना का परिचायक है। 'लोरिकायन के मर्मज्ञ तथा रसज्ञ डॉ० कुमार इन्द्रदेव ने इसे गद्यशैली में लिखकर जनसामान्य के लिए सुलभ कर दिया है। भारतीय इतिहास का प्रभावी तथा लोकप्रिय नायक लोरिक पौराणिक पात्र बनकर हम चमत्कृत कर रहा है। कुमार इन्द्रदेव ने विशाल लोककाव्य को गद्यकथा में प्रस्तुत कर हिन्दी साहित्य का उपकार किया है। हिन्दी कथा साहित्य इनकी इस सारस्वत साधना की विस्मृत नहीं कर सकता।


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Pages : 153
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