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संथाल विद्रोह (Santhal vidroh)

आधुनिक भारत में प्रमुख सामाजिक शक्तियों के बीच शक्ति सामंजस्य और वर्गीय एकता अपने अन्तर्विरोधों के बावजूद कृषक समुदाय के शोषण एवं दमन में सर्वाधिक प्रभावकारी कारक रहा है। औपनिवेशिक शासनकाल में इस प्रकार की वर्गीय संयुक्तता की झलक विदेशी साम्राज्यवाद और देशी सामंतवाद के बीच परस्पर संबंधों के विकास में मिलती है। प्रस्तुत अध्ययन में इन्हीं संबंधों के आधार पर बिहार के महत्वपूर्ण आदिवासी संथालों के शोषणक्रम को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। बिहार में कृषि समस्याओं और इनसे जुझ रहे आदिवासी समुदायों के अध्ययन की प्रासंगिकता आज काफी बढ़ गई है क्योंकि ये आदिवासी उस प्राचीन भारतीय संस्कृति की विरासत हैं जिसका धीरे-धीरे हास हो रहा है। समाजशास्त्रियों द्वारा इस समस्या पर विविध दृष्टिकोण से लेखन कार्य चलता रहा है। परंतु इतिहासकार और तथ्यों के बीच निरंतर चलने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया है जिसको द्वारा वर्तमान की समस्याओं को वैज्ञानिक दृष्टि से ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य दिया जाने का प्रयास चलता रहता है। प्रस्तुत पुस्तक एक ऐसा ही नम्र प्रयास है जिसमें संथालों के पूर्व इतिहास, कृषि संरचना, सामाजिक आर्थिक स्थिति पर सामान्य तथा 1855-56 के विद्रोह और इसके प्रति ब्रिटिश नीति तथा विद्रोह के प्रभाव पर विशेष एवं सूक्ष्म अध्ययन किया गया है। इसमें ब्रिटिश साम्राज्यवादी एवं दशा सामंतवादी ताकता तथा संथाल आदिवासियों द्वारा आरंभ किए विद्रोह एवं उसके विभिन्न चरणों का केन्द्र बिन्दु बनाया गया है। वैचारिकता के धरातल किसी सिद्धान्त विशेष के प्रति आग्रह न रखते हुए विद्रोह के सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं के प्राप्त तथ्यों के आधार पर आलोचनात्मक विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। यह पुस्तक स्नातकोत्तर के छात्रों शोधकर्ताओं एवं संथाल के संबंध में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए बहुत उपयोगी साबित होगा। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक टीपू मराठा और रणजीत सिंह समेत लगभग सभी देशी नरेशों को ब्रिटिश शासन ने लंबी लड़ाई के बाद अपने हथियार डाल देने के लिए बाध्य कर दिया था। अपनी विजय के साथ-साथ ब्रिटिश प्रशासक भारत के बड़े भू-भाग पर अपना प्रभावकारी शासन भी कायम करते जा रहे थे। भारत के राजनीतिक रंगमंच से पुराने सामंतवादी शासक और उनका सैन्य दल लगभग विलुप्त होने लगा था। 1850 ई० तक भारत में ब्रिटिश. बोच्चता लगभग सुनिश्चित हो चुकी थी। आम जनता विदेशी शासन के अधीन निष्क्रियतापूर्ण दुरावस्था में पहुँच चुक थी । वस्तुतः यह एक समय था जब विदेशी शासन और उसकी साम्राज्यवादी नीतियों के प्रभावस्वरुप भारतीय समाज का पूरा सामाजिक एवं आर्थिक आधार संक्रमण के बड़े दौर से गुजर रहा था। ब्रिटिश भू-बंदोबस्त, भारी राजस्व की माँग और जन के दिलों के विपरीत उन पर थोपी गई न्यायिक व्यवस्था ने जमींदारों एवं महाजों के एक नए विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का सृजन किया तथा उन्हें यह अवसर प्रदान किया गया कि वह कृषक अथवा खेतिहर वर्ग के लोगों को अपनी गिरफ्त में से कर अधिकाधिक शोषण कर सकें ।


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Pages : 153
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