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संस्कृति दर्पण (Sanskriti Darpan)

प्रस्तुत संकलन में बहुस्तरीय सामाजिक स्थितियों में नारी के विविध प्रतिमानों की विवेचना की गई है। 'भारतीय परमप्रा' में "नारी की छवी" नारीत्व की अवधारणा, प्रतिक और प्रतिमानों के साथ ही अनुभूत आदर्शों का उल्लेख है। मनुस्मृति के समय में स्वतन्त्र नारी की छवि को संभ्रान्त समाज में सम्मान नहीं दिया गया हैं समय के साथ पर्दा एकांतता और बालविवाह के कारण मध्यकाल में आर्थिक स्वतंत्रता और समानता की मांग के फलस्वरूप स्त्री पुरुष के बीच प्रतिद्वन्द्वित्ता की प्रवृत्ति बढ़ रही है। प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय नारी के प्रची, मध्ययुगीन, अधुनिक, भविष्य एवं वर्तमान स्वरूप समेत नारी के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व बौद्धिक विषयों पर बिस्तार पूर्वक प्रकाश डाला गया है। यह रचना ग्रन्थ हिन्दी में एम.ए. के विद्यार्थियों के लिए पाठ्यक्रम पर आधारित पहला प्रयास है। इस रचना में नारी की कोमलतम भावनाओं व भारतीय संस्कृति एवं समाज तथा राष्ट्र की प्रगति एवं नवनिर्माण में नारी योगदान समेत उनकी शूरता वीरता दृढता व विद्वता का बड़ा ही हृदयकारी चित्रण हुआ है। यह पुस्तक एम.ए. इतिहास के विद्यार्थियों के लिए विशेष उपयोगी साबित होगी इसके अलावा भारतीय संस्कृति और समाजशास्त्र के लिए विशेष उपयोगी साबित होगी इसके अलावा भारतीय संस्कृति और समाजशास्त्र के विद्यार्थियों की उपयोगी सिद्ध होगी। श्री पुरुषोत्तम दास रस्तोगी द्वारा रचित 'संस्कृति दर्पण' भारतीय संस्कृति की व्याख्या एवं ऐतिहासिक विकास क्रम को रेखांकित करता है। भारतीय संस्कृति का मूल श्रोत बेद-वेदांग स्मृति एवं पुराण है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय संस्कृति की ऐसी मूलगामी प्रतिबद्धता के बावजूद भी यहाँ परस्पर विरोधी और समानान्तर विचारों का विकास हुआ है। विविध सांस्कृतिक विचारों को उचित सम्मान भारतीय मनिषियों ने दिया है। भारतीय संस्कृति के अधिकांश सम्प्रदाय भारतीयता का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत के सांस्कृतिक जीवन में वैदिक संस्कृति की प्रतिष्ठा है। इस ग्रंथ में मानवीय चेतना के ज्ञानात्मक, क्रियात्मक एवं भावनात्मक, तीनों ही, अभिवृत्तियों को एक साथ व्याख्यायित किया गया है। लेखक ने इस ग्रंथ के माध्यम से यह स्थापित करने की चेष्टा की है कि आधुनिक मनुष्य आस्थाविहीन तर्कवादी हो गया है। वेद वेदांग एवं पुराणों के प्रति अनास्था की मान्यवर 'रस्तोगी जी अस्वीकार करते हैं। अर्थप्रधान युग में संस्कार संस्कृति एवं धर्म के अवमूल्यन के प्रति लेखक ने अपनी चिन्ता अभिव्यक्त की है। श्री रस्तोगी जी ने वस्तुतः संस्कृत साहित्य को भारतीय संस्कृति का दर्पण माना है। वैदिक साहित्य में वर्णित भारतीय संस्कृति का अवलोकन करते हुए श्री रस्तोगी जी को चिन्ता है कि आज की युवा पीढ़ी शास्त्रों को कपोल कल्पित कहता है। साधना का कष्ट नहीं उठाना। पुराणों को कल्पना की उपज मानता है। श्री रस्तोगी ने एक मौलिक प्रश्न उठाया है कि हमारे ऋषियों ने क्या किया कि हो गये मेटा हो गये, त्रकालदर्शी हो गए।िन


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