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संस्कृत साहित्य में हास्यरस की अभिनेयता Sanskrit Sahitya Mein Hasyaras Ki Abhineyta

प्रस्तुत ग्रन्थ में इसी हास्य रस की महत्ता को उद्घटित करने के लिए मुख्य रूप से पाँच प्रहसन और चार भाग के विषयों की उपस्थापना की गयी है। इसके पहले नाटककार भास, कालिदास, विशाखदत्त आदि के नाटकों में हास्यरस के प्रसंग की अवतारणा को रोचकता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इन सभी रचनाओं में विदूषकों की भूमिका की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है तथा जहां अन्य रेखों की प्रधानता है वहा विदूषक किस प्रकार नायक को फलप्राप्ति में मनोरंजनात्मकता के साथ अपना सहयोग करता है, इसकी भी चर्चा की गई है। इस प्रकार रस का सार चमत्कार है, जो अन्य रसों की अपेक्षा हास्यरस में अधिक है। अत: चमत्कार सर्वसाधारण को भी सुलभता से उपलब्ध हो, उसी को ध्यान में रखकर यह ग्रन्थ पाठकों के समक्ष उपस्थापित है। पाठक उससे जितना अधिक आनन्द ले सकें, उसी अनुपात में मैं अपने प्रयास को सफल मानूँगी। विविधता से परिपूर्ण काव्य-विधा के अन्तर्गत नाटक की श्रेष्ठता सार्वजनिक है योंकि यहाँ चतुर्विध अभिनयों के द्वारा विभिन्न प्रकार के लोगों को लोकोत्ानन्द की प्राप्ति सुलभता से होती है नाटकों में भी जहाँ भोजराज श्रृंगार को स्वीकार करते हैं, भवभूति करुण रस को किन्तु प्रहसन और भाण रुपकों के अन्तर्गत इस प्रकार अभिनेय काव्य है कि यहां हास्य रस की प्रधानता सुलभतापूर्वक अनुभूत होती है। अतः कुछ आलोचकों की दृष्टि में असली चमत्कार तो हास्य रस में ही है। गंभीर विषयों के प्रतिपादन और प्रस्तुतिकरण में हास्यरस जितनी बड़ी भूमिका निभाती है अन्य रस ऐसी संभावना नहीं रहती है। इसलिए तनावों के शिथिलीकरण में हास्यरस की बराबरी कोई नहीं कर सकता है। वैसे दृश्य और श्रव्य काव्य दोनों में हास्यरस का क्षेत्र विस्तृत है, फिर भी श्रव्य काव्य की अपेक्षा दृश्य काव्यों में हास्यरस की समायोजना वास्तव में तत्काल सभी लोगों के लिए प्रशंसात्मक रूप में उपस्थापित होती है। कभी कभी तो ऐसा भी देखा जाता है कि शांत रस में भी हास्य रस अपनी महत्ता इस प्रकार प्रकट करता है जिस प्रकार मिठाई के बीच चटनी। सभी रूपकों में विदूषक की समायोजना इसलिए की जाती है कि नाटकों का मुख्य उद्देश्य आनन्दोपलन्धि तत्काल सुलभ हो। हास्यरस की महता इस बात को लेकर सहज रुपेण बोधगम्य है कि नाटककार भास को उनकी प्रशंसा में आलोचकों द्वारा हास की संज्ञा से विभूषित किया गया है। कुछ आलोचक तो यह भी मानते हैं कि जिन नाटकों में हास्य नहीं है उनका मूल्याकन अपने आप कम हो जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में इसी हास्य रस की महत्ता को उदघटित करने के लिए मुख्य रूप से पाँच प्रहसन और चार भाग के विषयों की उपस्थापना की गयी है। इसके पहले नाटककार नाटकों में हायरस प्रसंग की महता इस बात को लेकर सहज रुपेण बोधगम्य है कि नाटककार भास को उनकी प्रशंसा में आलोचकों द्वारा हास की संज्ञा से विभूषित किया गया हैं। कुछ आलोचक तो यह भी मानते हैं कि जिन नाटकों में हास्य नहीं है उनका मूल्यांकन अपने आप कम हो जाता है।


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